Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, तारे ये ज्योतिष देव हैं। मनुष्यलोक में ये निरन्तर मेरु की प्रदक्षिणा देते रहते हैं। इससे काल का विभाग होता है।
देवों को अवधिज्ञान होता है। वे अवधिज्ञान द्वारा इस कालविभाग को जानते हैं। और इसी से उनको अष्टाह्निका पर्व के दिनों का ज्ञान हो जाता है जिससे वे प्रत्येक अष्टाह्निकापर्व में नंदीश्वरद्वीप में जाकर पूजन करते हैं।
-जें. ग. 28-8-69/VII/ जैन चैत्यालय, रोहतक नर-तिर्यञ्च में अवधिज्ञान के स्वामी कौन हैं ? शंका-मनुष्य व तियंचों में अवधिज्ञान क्या केवल सम्यग्दृष्टियों के ही संभव है या मिथ्यादृष्टियों के भी हो सकता है ?
समाधान-मनुष्य, तिथंच, देव, नारकी इन चारों गतियों में अवधिज्ञान सम्यग्दृष्टि के ही होता है । मिथ्यादृष्टि के अवधिज्ञान नहीं होता है, किन्तु विभंग-ज्ञान ( कु-अवधिज्ञान ) होता है ।
"आभिणिवोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणमसंजदसम्माइटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीवराग-छवुमत्था त्ति ॥१२०॥ भवतु नाम देवनारकासंयतसम्यग्दृष्टिष्ववधिज्ञानस्य सत्त्वं तस्य तद्भवनिबन्धनत्वात् । देशविरताद्य परित. नानामपि भवतु तत्सत्त्वं तनिमित्तगुणस्य तत्र सत्त्वात्, न तिर्यक मनुष्यासंयतसम्यग्दृष्टिषु तस्य सत्त्वं तन्निवन्धनभवगुणानां तत्रासत्त्वादिति चेन्न, अवधिज्ञाननिबन्धनसम्यक्त्वगुणस्य तत्र सत्त्वात् ।" (धवल पु० १ पृ० ३६४-३६५)
अर्थ-आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीनों असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतराग-छद्मस्थगुणस्थान तक होते हैं ।।५२०।। इस पर यह प्रश्न हा कि देव और नारकीसंबन्धी प्रसंयतसम्यग्दृष्टि जीवों में अवधिज्ञान का सद्भाव भले ही रहा आवे, क्योंकि उनके अवधिज्ञान भवनिमित्तक होता है। उसी प्रकार देशविरति आदि ऊपर के गुणस्थानों में भी अवधिज्ञान रहा आवे, क्योंकि अवधिज्ञान की उत्पत्ति के कारणभत गुणों का वहाँ पर सद्भाव पाया जाता है। परंतु असंयतसम्यग्दृष्टितियंच और मनुष्यों में उसका सद्भाव नहीं पाया जा सकता है, क्योंकि अवधिज्ञान की उत्पत्ति के कारण भव और गुण असंयतसम्यग्दृष्टितियंच और मनुष्यों में नहीं पाये जाते हैं ? ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन अवधिज्ञान की उत्पत्ति में कारण है और असंयतसम्यग्दृष्टिमनुष्य व तियंचों में सम्यग्दर्शन का सद्भाव पाया जाता है।
"विभंगणाणं सण्णि-मिच्छाइट्ठीणं वा सासणसम्माइट्ठीणं वा ॥११७॥ विभंगज्ञान ( कु-अवधिज्ञान ) मिथ्यादृष्टिजीवों के तथा सासादन-सम्यग्दृष्टि जीवों के होता है।
-जं. ग. 10-2-72/VII/ क. च. सर्वावधि द्वारा विषयीकृत उत्कृष्ट संख्या ( तत्संख्यक पदार्थ ) शंका-क्या सर्वावधिज्ञान उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात को विषय करता है ? क्या जघन्य परीतानन्त को सर्वावधि विषय कर सकता है ? स्पष्ट करें?
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