Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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२८८ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
सम्पूर्ण श्रात्म-प्रदेशों में क्षयोपशम होने पर भी अवधिज्ञान चिह्नस्थ प्रदेशों से ही जानता है
शंका-अवधि या विभंगज्ञान उन प्रदेशों से उत्पन्न होकर उन प्रदेशों में ही अनुभव होता है जैसा कि चक्षुइन्द्रिय से अथवा सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में अनुभव होता है ? यदि प्रतिनियत प्रदेशों में ही अनुभव होता है और उनस्त्ररूप प्रदेशों के आश्रय से ही उत्पन्न होता है तो प्रत्यक्ष का लक्षण बाधित होता है ।
समाधान-आत्मा के कुछ प्रदेशों से ज्ञान उत्पन्न होने पर भी उसका अनुभव सम्पूर्ण प्रात्म प्रदेशों में होता है । समयसार गाथा १३ की टीका में प्रत्यक्ष और परोक्ष का लक्षण इस प्रकार दिया है - उपात्त (इन्द्रिय) और अनुपात ( प्रकाशादि पर द्वारा प्रवर्ते अर्थात् पर की सहायता द्वारा प्रवर्ते वह परोक्ष है । केवल ( मात्र ) आत्मा में ही प्रतिनिश्चित रूप से ( बिना पर पदार्थ की सहायता के ) प्रवृत्ति करे सो प्रत्यक्ष है । अवधिज्ञान एक कालमें उन समस्त चिह्नों में स्थित श्रात्मप्र देशों से उत्पन्न होते हुए भी उन चिह्नों की सहायता नहीं लेता अथवा उन चिह्नों द्वारा नहीं प्रवर्ता क्योंकि उन चिह्नों का कोई नियत विषय नहीं है और समस्त चिह्नों में स्थित आत्मप्रदेशों द्वारा एक साथ जानता है, किन्तु प्रत्येक इन्द्रिय का विषय नियत है और एक काल में एक ही इन्द्रिय द्वारा प्रतिनियत विषय को जानता है । अतः उस अवधिज्ञान के प्रत्यक्ष होने में कोई बाधा नहीं श्राती । संपूर्ण आत्मप्रदेशों में क्षयोपशम होने पर भी अवधिज्ञान सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों से नहीं जानता, किन्तु चिह्नों में स्थित आत्मप्रदेशों से जानता है । अतः इसको एक क्षेत्री कहा है ।
- जै. सं. 19-6-58 / V / जि. कु. जैन, पानीपत
(१) आत्मा के एक देश में ज्ञान नहीं होता (२) चिह्नों और इन्द्रियों में अन्तर
शंका- 'गुणप्रत्यय अवधिज्ञान अथवा विभङ्गज्ञान मनुष्यों तथा तियंचों को नाभि के ऊपर शंखादि शुभ चिह्नों द्वारा तथा नाभि के नीचे गिरगटादि अशुभ चिह्नों द्वारा होता है । देव, नारकियों व तीर्थंकरों को सर्वाङ्ग से ही होने का नियम है।' ऐसा आगम वाक्य है। इस पर निम्न शंकाएं हैं
अखंड आत्मा के एकदेश में ज्ञान का क्या तात्पर्य है ? क्या यह शुभ व अशुभ चिह्न चक्षु आदि इन्द्रियवत् हैं ? ऐसा तो हो नहीं सकता। क्योंकि ध० पु० १३, पृष्ठ २९६, सूत्र ५७ की टीका में अवधिज्ञान चिह्न का इन्द्रियवत् प्रतिनियत आकार होने का निषेध किया है ।
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समाधान - ज्ञान का क्षयोपशम आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों पर होता है, क्योंकि आत्मा अखंड है । आत्मा के कुछ प्रदेशों पर ज्ञान का क्षयोपशम होता है ऐसा तो माना नहीं जा सकता, अन्यथा आत्मा प्रखंड नहीं रहेगी । शुभ या अशुभ चिह्न चक्षु आदि इन्द्रिवत् भी नहीं हैं, क्योंकि इनका प्रतिनियत आकार व संख्या आदि नहीं होती। जिसप्रकार श्रोत्रइन्द्रिय का आकार यवनाली के समान होता है और संख्या में दो होते हैं इस प्रकार शुभ व अशुभ चिह्नों का कोई नियत आकार नहीं होता। और न इनकी संख्या का कोई नियम है। चिह्न एक भी हो सकता है। और एक साथ दो भी हो सकते हैं, तीन भी हो सकते हैं, इससे अधिक भी हो सकते हैं । इन्द्रियों की रचना गोपांग नामकर्म के उदय से होती है, किन्तु चिह्नों की रचना शरीर नामकर्म से नहीं होती है । श्रतः चिह्नों और इन्द्रियों में अंतर है ।
- जै. सं. 19-6-58 / V / जि. कु. जैन, पानीपत
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