Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार।
खण्डी, मुण्डी आदि गायों को गोपना की दृष्टि से देखें तो अभेद है और उन खण्डी, मुण्डी आदि गायों को खण्ड, मुण्ड आदि विसदृशपरिणामों की रष्टि से देखा जाये तो उन्हीं गायों में व्यतिरेक विशेष के कारण भेद है।
इसी प्रकार यदि चौथे गुणस्थानवर्तीसम्यग्दृष्टि और तेरहवें गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि को सामान्यसम्यगदर्शन, अर्थात् व्यवहार-निश्चय के भेद से रहित अथवा उपशम, क्षयोपशम व क्षायिक के भेद से रहित अथवा प्राज्ञा, मार्ग आदि दस भेदों की अपेक्षा से रहित अथवा सराग-वीतराग के भेद से रहित, की अपेक्षा से चौथे गुणस्थान से तेरहवेंगुणस्थान के सम्यग्दर्शन में अन्तर नहीं है, क्योंकि विसदृशपरिणाम विशेषों से रहित सदृशपरिणाम की अपेक्षा है। परन्तु विसदृशपरिणामरूप व्यतिरेकविशेष की अपेक्षा से चौथे गुणस्थान और तेरहवें गुणस्थान के सम्यग्दर्शन में भेद है । तेरहवें गुणस्थान में परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन है, किन्तु चौथे गुणस्थान में परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन नहीं है। कहा भी है
"कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगा ति रुढा" ॥१४॥( आत्मानुशासन ) अर्थ-केवलज्ञान करि जो अवलोक्या पदार्थ विषं श्रद्धान सो यहाँ परमावगाढ़हष्टि प्रसिद्ध है।
चौथे गुणस्थान में सराग-व्यवहारसम्यग्दर्शन है किन्तु तेरहवें गुणस्थान में परमवीतरागनिश्चयसम्यग्दर्शन है । चौथे गुणस्थान में उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक तीनोंसम्यग्दर्शन हैं। तेरहवेंगुणस्थान में एक क्षायिकसम्यग्दर्शन है।
सम्यग्दर्शन सामान्य-विशेषरूप है। सामान्य ( सदृश परिणाम ) की अपेक्षा सभी सम्यग्दर्शनों में एकत्व है। विशेष (विसहश परिणाम ) की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के असंख्यातलोकप्रमाण भेदों में विभिन्नता है अन्यथा सम्यग्दर्शन के असंख्यातलोकप्रमाण भेद नहीं हो सकते थे।
चौथे गुणस्थान में संयमाचरणचारित्र नहीं होने से शुद्धोपयोगी नहीं होता है। प्रवचनसार की टीका में श्री जयसेन आचार्य ने कहा है कि चौथे गुणस्थान में शुभोपयोग होता है।
-जे. ग. 5-9-66/VII/र. ला. जैन, मेरठ (१) सम्यग्दर्शन गुण नहीं, पर्याय है
(२) असंयत व केवली के सम्यक्त्व में अन्तर शंका-दिनांक २ फरवरी ५६ के शंका-समाधान ( एक ) में जो आपने 'सम्यग्दर्शन' को गुण बताया तो फिर 'दर्शन' क्या रहा और उसकी पर्याय क्या रही ? चतुर्थगुणस्थानवर्ती के सम्यक्त्व में और केवली के सम्य. पत्व में फर्क बताते हुए जो शुद्धता की बात कही गई है वह तो ज्ञान और चारित्र की दृष्टि से है, सम्यग्दर्शन की दृष्टि से अन्तर बताइये, सम्यक्त्व को ऐसी कौनसी प्रकृतियाँ हैं जो दोनों में भेद रेखा खींचती हैं, इसे उदाहरण और प्रमाणों से फिर खलासा कीजिये। दोनों के आत्मानुभव में भी अगर कोई भेद हो तो उसे भी स्पष्ट कीजिए।
___ समाधान-गुण 'दर्शन' श्रद्धा है। उसकी स्वाभाविक व वैभाविक दो अवस्थाएं हैं। स्वाभाविक अवस्था को सम्यक्त्व और विभावावस्था को मिथ्यात्व कहते हैं। गुण की स्वाभाविक अवस्था को भी गुण कहते हैं जैसे सिद्धों के आठ गुणों में प्रथम गुण सम्यक्त्व कहा है । केवली के परमावगाढ़ सम्यक्त्व होता है, किन्तु चतुर्थगुणस्थान
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