Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व
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वर्ती के क्षायिकसम्यक्त्व होते हुए भी परमावगाढ़ सम्यक्स्व नहीं होता है । यह भेद दर्शनमोहनीयकर्म कृत नहीं है । जीवद्रव्य की शुद्धता के भेद से सम्यक्त्व में भेद है । लकड़ी के एक तख्ते को रन्दे व रेजमाल आदि से चिकना करके उसपर रोगन किया जावे और एक खुरदरे लकड़ी के तख्ते पर वही रोगन किया जावे, रोगन एक होते हुए भी लकड़ी की सचिक्करणता व रूक्षता के कारण रोगन की चमक में अन्तर हो जाता है । चतुर्थगुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यग्दष्टि और केवली के भ्रात्मानुभव में अन्तर है । केवली को केवलज्ञान व यथाख्यातचारित्र द्वारा आत्मानुभव हो रहा है, किन्तु चतुर्थगुणस्थानवर्ती के न तो केवलज्ञान है और न यथाख्यातचारित्र है । अतः इन दोनों के अनुभव ' में ज्ञान व चारित्र की अपेक्षा अन्तर है |
- जै. सं. 5-7-56/VI / र. ला. जैन, केकड़ी
गहीन सम्यक्त्व से प्रभीष्ट सिद्धि नहीं होती
शंका- क्या अंगहीन सम्यग्दर्शन से भी अभीष्ट की सिद्धि होती है ? क्या अंगहीन सम्यग्दर्शन मोक्ष का कारण ही नहीं है ?
समाधान- - अंगहीन सम्यग्दर्शन से कार्य की सिद्धि नहीं होती है। श्री समन्तभद्र आचार्य ने कहा भी है
नाङ्गहीनमलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसन्ततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥२१॥
अङ्गहीन सम्यग्दर्शन जन्ममरण की परम्परा का नाश नहीं कर सकता जैसा कि हीन अक्षर वाला मन्त्र विष वेदना को दूर नहीं कर सकता ।
अङ्गहीन के निर्मल सम्यग्दर्शन संभव नहीं है । क्वचित् कदाचित् प्रतिचार लगने से सम्यग्दर्शन मलिन हो जाता है ।
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- जै. ग. 8-1-70/ VII / रो. ला. मित्तल
सम्यक्त्व छूट जाने पर वह जीव सम्यक्त्वी नहीं कहलाता
शंका--जब उपशम या क्षयोपशमसम्यक्त्व छूट जाता है तो क्या उस छूट जाने के काल में मी जीव सम्यग्दृष्टि कहलाता है ?
समाधान - मिथ्यात्वप्रकृति, अनन्तानुबन्धीकषाय चारित्रमोहनीयकर्म या सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के स्वमुख उदय होनेपर जीव सम्यक्त्वच्युत हो जाता है । उसकाल में वह जीव सम्यग्दष्टि नहीं रहता है । मिध्यात्वप्रकृति के उदय श्रा जाने पर वह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है । अनन्तानुबन्धीकषाय के उदय होने पर वह जीव सासादन हो जाता है । सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के उदय आ जाने पर वह जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो जाता है ।
- जै. ग. 11-3-71 / VI / सुलतानसिंह
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