Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ ५० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थ-सुख-दुःखरूपी नाना प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्मरूपी क्षेत्र को जो कर्षण करती हैं अर्थात् फल उत्पन्न करने योग्य करती हैं, उन्हें कषाय कहते हैं।
लेश्या का लक्षण निम्न प्रकार है
"आत्मप्रवृत्तिसंश्लोषणकरी लेश्या। कषायानुरञ्जिता कायवा मनोयोगप्रवृत्तिलेण्या। सतो न केवलः कषायो लेश्या, नापियोगः, अपितु कषायानुविद्धा योगप्रवृत्तिर्लेश्येति सिद्धम् ।" ( धवल पु० १ पृ० १४९ )
अर्थ-जो आत्मा और कर्म का संबंध करनेवाली है, उसको लेश्या कहते हैं । कषाय से अनुरंजित काययोग, वचनयोग और मनोयोग की प्रवृत्ति को लेश्या कह सकते हैं । इसप्रकार लेश्या का लक्षण करने पर केवल कषाय को या केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते हैं, किन्तु कषायानुविद्ध योगप्रवृत्ति को ही लेश्या कहते हैं। यह बात सिद्ध हो जाती है।
लिपदि अप्पीकीरवि एवीएणियय-पुण्ण-पावं च ।
जीवो ति होइलेस्सालेस्सागुणजाणयक्खादा ॥४८९॥ (गो० जी०) अर्थ-जिसके द्वारा जीव पुण्य और पाप से अपने को लिप्त करता है, उनके अधीन करता है, उसको लेश्या कहते हैं, ऐसा लेश्या के स्वरूप को जानने वाले गणधरदेव आदि ने कहा है।
-णे. ग. 29-2-68/XII/ मगनमाला कृष्णलेश्या में सम्यक्त्व व मिथ्यात्व का अन्तरकाल शंका-धवल पु० ५ पृ० १४४ में लिखा है छह अन्तर्मुहूर्त से कम तैतीससागर कृष्णलेश्या का अन्तर है, सो कैसे?
समाधान--धवल पु० ५ पु० १४४ पर कृष्ण लेश्या का अन्तर नहीं कहा गया है, किन्तु कृष्ण लेश्या में मिथ्यात्व व असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान का अन्तर कहा गया है । अर्थात् कृष्णलेश्या तो बनी रहे और उसमें मिथ्यात्वगुणस्थान होकर छूट जावे उसके पश्चात् मिथ्यात्वगुणस्थान पुनः होने में उत्कृष्ट अन्तर कितना हो सकता है यह बतलाया गया है । अथवा कृष्ण लेश्या तो छूटे नहीं और उसमें चौथा गुणस्थान होकर छूट जावे वह चौथा गुणस्थान पुनः उत्कृष्ट से कितने काल पश्चात् हो सकता है, यह बतलाया गया है । यह सातवें नरक में ही संभव है क्योंकि वहाँ पर ३३ सागर तक कृष्णलेश्या तो रहेगी ही, किन्तु गुणस्थान परिवर्तन होने से गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम ३३ सागर हो जाता है ।
-जें. ग. 5-3-64/IX/ स. कु. सेठी तेजोलेश्या का उत्कृष्ट काल शंका-षट्खंडागम पुस्तक १४ पेज २८२ पर पीतलेश्या में उत्कृष्टकाल साधिक दो सागर है जबकि पीतलेश्या चौथे स्वर्ग तक पाई जाती है स्थिति अधिक है फिर दो सागर कैसे ?
समाधान पीतलेश्यावाला जीव मरकर तीसरे या चौथेस्वर्ग के नीचे के विमानों में उत्पन्न होगा. जहाँ पर आयु साधिक दो सागर होती है । धवल पु० ४ पृ० २९६ पर कहा भी है कि “सानत्कुमार-माहेन्द्र कल्प के
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