Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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क्षयोपशम और विशुद्धिलब्धि के स्वरूप से यह ज्ञात हो जायगा कि आत्मबोध अर्थात् जीवादि पदार्थों के ज्ञान के बिना भी क्षयोपशम और विशुद्धिलब्धि होती है।
कम्ममलपडलसत्ती पडिसमयम अंतगुणविहीणकमा। होदूणदीरदि जवा तदा खओवसमलद्धी दु॥४॥ आदिमलद्धि भवो जो भावो जीवस्स सादपहुदीणं । सत्थाणं पयडीणं बंधणजोगो विसुद्धलद्धी सो ॥ ५॥ (लब्धिसार )
अर्थ-कर्ममलरूप जो अशुभ ज्ञानावरणादि कर्मसमूह उनका अनुभाग जिस काल में समय-समय पर अनन्तगुणा क्रमसे घटता हुआ उदय को प्राप्त होता है उस काल में क्षयोपशमलब्धि होती है। इस क्षयोपशमलब्धि से उत्पन्न हुआ जो जीव के सातादि शुभ प्रकृतियों के बंधने के कारण शुभ परिणाम उसकी प्राप्ति विशुद्धिलब्धि है।
___इससे स्पष्ट है कि उपर्युक्त दोनों लब्धियों में आत्मबोध की आवश्यकता नहीं ।
- (ख) प्रश्न यह कि क्षयोपशम व विशुद्धिलब्धि में स्थितिबंधापसरण अर्थात् स्थिति बंध का घटना होता है या नहीं।
(क) में क्षयोपशम व विशुद्धिलब्धियों का स्वरूप दिया गया है उससे सिद्ध होता है कि क्षयोपशमलब्धि व विशुद्धिलब्धि में स्थितिबधापसरण अर्थात् स्थितिबंध का घटना नहीं होता है । तीसरी देशनालब्धि में भी स्थितिबंधापसरण नहीं होता है। चौथी प्रायोग्यलब्धि में स्थितिबंधापसरण होते हैं। कहा भी है -
सम्मत्तहिमुह मिच्छो विसोहिवड्डीहि वड्डमाणो हु । अंतोकोडाकोडिं सत्तण्हं बंधणं कुणई ॥९॥ तत्तो उदय सदस्स स पुधत्तमेत्तं पुणो पुणोदरिय । बंधम्मि पडिम्हि य छेदपदा होति चोत्तीसा ॥ १० ॥ ( लन्धिसार)
- अर्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि विशुद्धपने की वृद्धि से बढ़ता हुआ प्रायोग्यलब्धि के प्रथमसमय से लेकर पूर्वस्थितिबंध के संख्यातवेंभाग अन्तःकोडाकोड़ीसागरप्रमाण आयु के बिना सातकों की स्थिति बांधता है। उस अन्तःकोडाकोड़ीसागर स्थितिबंध से पल्यका संख्यातवाँभाग मात्र घटता हुआ स्थितिबंध अन्तमर्ततक समानता लिये हए करता है। फिर उससे पल्य के संख्यातवेंभाग घटता स्थितिबंध अन्तमूहर्त तक करता है। इस तरह क्रम से संख्यातस्थितिबंधापसरणों द्वारा पृथक्त्वसौसागर घटने से पहला प्रकृतिबंधापसरण होता है। फिर उसी क्रम से उससे भी पृथक्त्वसौसागर घटने से दूसरा प्रकृतिबंधापसरणस्थान होता है। ऐसे प्रकृतिबंधापसरण के ३४ स्थान होते हैं।
___ इन दोनों गाथाओं में यह स्पष्ट हो जाता है कि चौथी प्रायोग्यल ब्धि में स्थितबंधापसरण प्रारम्भ होता है । प्रथम क्षयोपशमलब्धि और दूसरीविशुद्धिलब्धि में स्थितिबंधापसरण नहीं होते।
-. ग. 15-8-68/VIII/........
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