Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ३७१ सम्यग्दर्शन को पूर्णता शंका-आपने लिखा है कि माचार्य महाराज ( श्री शान्तिसागरजी ) पूर्ण सम्यग्दृष्टि थे। अपूर्ण सम्य. ग्दर्शन कौनसा है तथा अपूर्ण सम्यग्दृष्टि के पहचानने के क्या चिह्न हैं ?
समाधान-जिनागम में सम्यग्दर्शन के आठ अंग कहे गए हैं-१. निःशंकित २. निःकाङि क्षत ३. निविचि. कित्सा ४. अमूढष्टि ५. उपगृहन ६. स्थितिकरण ७. वात्सल्य ८. प्रभावना। जो सम्यग्दर्शन इन आठों अंगों सहित होता है वह पूर्ण सम्यग्दर्शन है और जो इन अंगों से रहित है वह अपूर्ण सम्यग्दर्शन है। यदि मनुष्य का शरीर अंग रहित हो तो वह शरीर पूर्ण नहीं कहलाता उसीप्रकार अंगरहित सम्यग्दर्शन पूर्ण नहीं होता
नाङ्गहीनमलं छत्तुं वर्शनं जन्मसन्ततिम् ।
न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥ २१ ॥ २० बा० ॥ अर्थ-अंगहीन सम्यग्दर्शन जन्म-मरण की परम्परा का नाश नहीं कर सकता जैसे कि हीन अक्षरवाला मंत्र विष की वेदना को दूर नहीं कर सकता।
अष्ट अंगों के प्रभाव के द्वारा अपूर्ण सम्यग्दर्शन की पहचान हो सकती है ।
-जै.सं. 31-1-57/VI/ मो. ला. स. सीकर सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र का क्षयोपशम, उपशम शंका-सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र का क्षयोपशम किस-किस गुणस्थान तक रहता है। उपशमणी में और द्वितीयोपशमसम्यग्दर्शन में क्या अन्तर है ? उपशमश्रेणी सातवें गुणस्थान के अन्त तथा आठवें गुणस्थान के प्रारम्भ में शुरू हो जाती है और उपशमणी चारित्रमोह को २१ प्रकृतियों की अपेक्षा से है, किन्तु क्षयोपशमचारित्र बसवेंगुणस्थान तक कहा है । सो उपशम और क्षयोपशम दोनों एक ही चारित्रसम्बन्धी एक साथ कैसे होते हैं ?
समाधान-क्षयोपशमसम्यग्दर्शन चौथेगुणस्थान से सातवेंगुणस्थान तक होता है । क्षयोपशमचारित्र पांचवें से सातवें तक अथवा किसी अपेक्षा दसवेंगुणस्थान तक होता है । द्वितीयोपशमसम्यक्त्व का काल अधिक है और उपशमश्रेणी का काल कम है । अतः द्वितीयोपशमसम्यक्त्व उपशमश्रेणी से पूर्व और पश्चात् भी चतुर्थादि गुणस्थानों में होता है। चारित्रमोह की २० प्रकृतियों का उपशम नवेंगुणस्थान में होता है और सूक्ष्मलोभ का उपशम दसवें. गुणस्थान में होता है, किन्तु उपशमश्रेणी में आठवें गुणस्थान में चारित्र की उपशमचारित्र संज्ञा हो जाती है, क्योंकि वह आगामी चारित्रमोह का उपशम करेगा। ( देखो ष० खं० पुस्तक १ पत्र १८१-१८२, २१०-२११, पु० ५ पत्र २०४, १६५-१६६ व पु० ६ पत्र ३३७-३३८ ) किन्तु छठेगुणस्थान से दसवेंगुणस्थान तक देशघातिप्रकृति संज्वलनकषाय का उदय रहता है अतः दसवेंगुरगस्थान तक क्षयोपशमचारित्र भी कहा गया है। अपेक्षाभेद
के कारण एक ही चारित्र को उपशमचारित्र भी कह सकते हैं और क्षयोपशमचारित्र भी कह सकते हैं। जिस .... अपेक्षा से उपशमचारित्र कहा है, उस अपेक्षा से क्षयोपशमचारित्र नहीं कह सकते हैं, जिस अपेक्षा से क्षयोपशमचारित्र कहा है, उस अपेक्षा से उपशमचारित्र नहीं कह सकते।
उपशमश्रेणी में चारित्रमोह का उपशम होता है और द्वितीयोपशमसम्यक्त्व में दर्शन मोह का उपशम होता है।
-णे. स. 14-6-56/VI) क. दे. गया
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