Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ३८१ अनादि मिथ्यात्वी के मिथ्यात्व के तीन भेद कब होते हैं, इस विषय में दो मत
शंका-अनादिमिथ्यादृष्टि के मोहनीयकर्म को २६ प्रकृतियों का सत्त्व होता है या २८ प्रकृतियों का सत्त्व होता है?
समाधान-अनादिमिथ्यादृष्टि के चारित्रमोहनीय की २५ प्रकृतियों का और दर्शन-मोहनीय की एक मिथ्यात्वप्रकृति का इस प्रकार २६ प्रकृतियों का सत्त्व होता है।
खय उवसमिय विसोही देसणा पाओग्ग-करणलरधी य ।
चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होइ सम्मत्ते ॥ अनादिमिथ्यादृष्टि के सर्वप्रथम प्रथमोपशमसम्यक्त्व होता है। प्रथमोपशमसम्यक्त्व से पूर्व क्षयोपशमलब्धि विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यल ब्धि, करणलब्धि ये पांच लब्धियाँ होती हैं ।
इनमें से पहली चार तो सामान्य हैं अर्थात् भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीवों के होती हैं, किन्तु करणलब्धि सम्यक्त्व होने के समय होती है।
कुछ आचार्यों का मत है कि इस करणलब्धि के द्वारा मिथ्यात्वद्रव्य के तीनखण्ड होकर तीनप्रकृतियों का सत्कर्म हो जाता है।
"जतं सणमोहणीयं कम्मं तं बंधादो एयविहं, तस्स सतकम्म पुण तिविहं सम्म मिच्छतं सम्मामिच्छत्त वि ॥२१॥ बंधेण एयविहं, सणमोहणीयं कथं संतादो तिविहत्तं पडिवज्जवे ? ण एस बोसो, जंतएण बलिज्जमाण कोइवेसु कोहग्व-तंतुलध-तंदुलाणं व बंसणमोहणीयस्स अपुग्यादि करणेहि तिविहत्तुवलंभा। (धवल पु ६ पृ. ३८) "अणियटिकरणसहिब जीव संबंधेण एगविहस्स मोहणीयस्स तधाविहभावाविरोहादो ।
(धवल पु० १३ पृ० ३५८ ) अर्थ-जो दर्शनमोहनीयकर्म है वह बन्ध की अपेक्षा एक प्रकार का है, किन्तु उसका सत्कर्म तीन प्रकार
सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । इस पर यह प्रश्न होता है कि बंध से एक प्रकार का दर्शनमोहनीयकर्म सत्त्व की अपेक्षा तीन प्रकार का कैसे हो जाता है ? यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, जांते से ( चक्की से ) दले गये कोदों में कोदों, तन्दुल और अर्धतन्दुल; इन तीन विभागों के समान अपूर्वकरण आदि परिणामों के द्वारा दले गये दर्शनमोहनीय के त्रिविधता पाई जाती है। अनिवृत्तिकरणसहित जीव के सम्बन्ध से एक प्रकार के मोहनीय का तीन प्रकार परिणमन होने में कोई विरोध नहीं आता।
प्रथमोपशमसम्यक्त्व से पूर्व भी दर्शनमोहनीय कर्म के तीन खण्ड होकर २८ का सत्त्व हो जाता है। जिनके मत से अनिवृत्तिकरण से दर्शनमोहनीय के तीन खण्ड हो जाते हैं उन्हीं के मतानुसार अनिवृत्तिकरण के द्वारा अनन्तसंसार कटकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र संसारकाल रह जाता है। इसीलिये यह कहा जाता है कि अर्धपदगल. परिवर्तनकाल शेष रहने पर प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है।
दूसरा मत यह है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रथमसमय में मिथ्यात्व के तीन भाग करता है और उसी समय मनन्तसंसार को काटकर अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र करता है। कहा भी है
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