Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ३८७
संख्यातहजारसागरकम अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण कर्मस्थिति करदी जाती है, उसी प्रकार आत्माभिमुख परिणामों के द्वारा पंचलब्धि में या सम्यक्त्व के प्रथमसमय में अनन्तानन्तकालप्रमाण संसारस्थिति को काटकर अर्घपुद्गलपरावर्तनमात्र कर देता है।
जिस जीव ने पंचलब्धि में अनन्तसंसारस्थिति को काटकर अर्धपुद्गलपरावर्तनमात्र कर दिया उस जीव को अर्धपुद्गलपरावर्तनससारकाल शेष रहने पर सम्यग्दर्शन होता है। अन्यथा सम्यक्त्वोत्पत्ति के प्रथमसमय में ही अनन्तसंसारस्थिति कटकर अर्धपुद्गलपरावर्तनमात्र हो जावेगी ही।
इस सम्बन्ध में आगम प्रमाण निम्न प्रकार है
(१) "एगो अणादिमिच्छादिट्ठी अपरित्तसंसारो अधापवत्तकरणं अपुवकरणं अणियट्टिकरणमिदि एदाणि तिण्णि करणाणि कादूण सम्मत्तं गहिदपढमसमए चेव सम्मत्तगुरगेण पुग्विल्लो अपरित्तो संसारो ओहट्टिदूण परित्तो पोग्गलपरियट्टस्स अद्धमेत्तो उक्कसेण चिट्ठदि ।" (धवल पु०४ पृ० ३३५)
अर्थ-एक अनादि मिथ्यादृष्टि अपरीतसंसारी ( जिसका संसार अमर्यादित है ऐसा ) जीव, अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों ही करणों को करके सम्यक्त्व ग्रहण के प्रथमसमय में ही सम्यक्त्वगुण के द्वारा पूर्ववर्ती अपरीत-संसारीपना हटाकर व परीतसंसारी हो करके उत्कृष्ट से अर्धपुद्गलपरावर्तनकालप्रमाण ही संसार में ठहरता है।
(२) "एक्को अणावियमिच्छाविट्ठी तिण्णि करणाणि करिय सम्मत्तं पडिवण्णो । तेण सम्मत्तेण उप्पज्जमारपेण अणंतो संसारो छिण्णो संतो अद्धपोग्गलपरियटमेत्तो कदो।"(धवल ४/४७९ )।
अर्थ-कोई एक अनादिमिथ्याष्टिजीव तीनोंकरणों को करके सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। उत्पन्न होने के साथ ही उस सम्यक्त्व के द्वारा अनन्त संसार छिन्न होता हुआ अर्धपुद्गल परिवर्तनकालमात्र कर दिया गया। ...
(३) एक्केण अणावियमिच्छादिद्विणा तिण्णि करणाणि कादूण उवसमसम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए भणतो संसारो छिण्णो अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो। (धवल पु० ५ पृ० ११)
अर्थ-एक अनादि मिथ्याष्टिजीव ने तीनोंकरण करके उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त होने के प्रथमसमय में अनन्तसंसार को छिन्नकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र किया।
नोट-इसी प्रकार का कथन पृ० १२, १४, १५ व १६ धवल पु० ५ में है।
(४) "पज्जवट्टियणयावलंबणादो अप्पडिवणे सम्मत्ते अणादि अणंतो भवियभावो अंतावीवसंसारावो, पशिवपणे सम्मत्ते अण्णो भवियमावो उप्पज्जइ, पोग्गलपरियट्टस्स अद्धमेत्तसंसारावट्ठाणादो।"
(धवल पु० ७ पृ० १७७ )
अर्थ-पर्यायाथिकनय के अवलम्बन से जब तक सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया तब तक जीव का भव्यत्व अनादि-अनन्तरूप है, क्योंकि तब तक उसका संसार अन्तरहित है, किन्तु सम्यक्त्व के ग्रहण कर लेने पर अन्य ही भव्यभाव उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाने पर फिर केवल अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्रकाल तक संसार में स्थिति रहती है।
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