Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ३७३
संसारकाल रह जाने का एक ही समय है । यद्यपि इस एकसमय की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल शेष रहनेपर सम्यग्दर्शन होता है, तथापि कार्य-कारण की दृष्टि से देखा जाय तो सम्यग्दर्शनरूप परिणाम में ही यह शक्ति है कि अनादिमिथ्यादृष्टि का अनन्त संसार ( अंतरहित संसारकाल ) काटकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्रकाल कर देवे । इसलिये सम्यग्दर्शन कारण है और अर्धपुद्गलपरिवर्तनसंसारकाल रह जाना कार्य है। कहा भी है
___ "एक अनादिमिथ्यारष्टि अपरीतसंसारी ( जिसके संसार की अवधि न हो अथवा अन्त न हो ) जीव, मधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण इन तीनोंकरणों को करके सम्यक्त्व ग्रहण के प्रथमसमय में ही सम्यक्त्वगुण के द्वारा पूर्ववर्ती अन्त-रहित संसार को छेदकर परीत ( सान्त, सावधि ) संसारी हो, अधिक से अधिक अर्घपुद्गलपरिवर्तन काल तक संसार में रहता है।" (धवल पु० ४ पृ० ३३५)
"एक्को अणादिय मिच्छाविट्ठी तिण्णि करणाणि करिय सम्मत्तं पडिवण्णो। तेण सम्मत्तेण उप्पज्जमाणेण अणंतो संसारो छिण्णो संतो अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो।" ( धवल पु० ४ पृ० ४७९ )
अर्थ-एक अनादिमिथ्याष्टि भव्यजीव तीनोंकरणों को करके सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। उत्पन्न होने के साथ ही उस सम्यक्त्व से अनन्त ( अन्तरहित ) संसार छिन्न होता हुआ अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल मात्र कर दिया गया।
__ "एक्केण अणावियमिच्छाविद्विणा तिम्णि करणाणि कादूण उवसमसम्मत्त पडिवण्णपढमसमए अणंतो संसारो विष्णो अद्धपोग्गलपरियट्टमेतो कवो।" ( धवल पु० ५ पृ० ११, १२, १४, १५, १६, १९)
__ अर्थ-एक अनादिमिथ्यादष्टि भव्य जीव ने अधःप्रवृत्तादि तीनोंकरण करके उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त होने के प्रथमसमयमें अनन्त ( पन्त रहित, अमर्यादित ) संसार को छिन्नकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र किया। (यह कथन धवल पु० ५ पृ० ११, १२, १४, १५, १६ व १९ पर भी है।
"अप्पडिवणे सम्म अणाविअणंतो भविय-भावो अंतादीदसंसारदो; पडिवणे सम्मत्ते अण्णो भवियभावो उप्पज्नइ, पोग्गलपरियट्टस्स अद्धमेत्तसंसारावट्टाणादो।" ( धवल पु० ७ पृ० १७७ )
. अर्थ-जब तक सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया तब तक जीव का भव्यत्व अनादि-अनन्तरूप है, क्योंकि तब तक उसका संसार अंतरहित है, किन्तु सम्यक्त्व के ग्रहण करलेने पर अन्य ही भव्यभाव उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाने पर फिर केवल अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक संसार में स्थिति रहती है। (यह कथन धवल पु० ४ पृ० ४७७ पर भी है )
"मणावियमिच्छाविटिम्मि तिणि वि करणाणि काऊण उवसमसम्मत पडिवण्णम्मि अणंतसंसारं छत्तण टुविव-अखपोग्गलपरियट्टम्मि ।" ( जयधवल पु० २ पृ० २५३ )
अर्थ-अनादि मिथ्याष्टि जीव तीनों करणों को करके "उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हआ और अनन्त (अंतरहित ) संसार को छेदकर संसार में रहने के काल को अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण किया।"
"एगो अणादिय मिच्छाविट्ठी तिग्णि वि करणाणि काऊण पढमसम्मत्त पडिवण्णो। तत्थ सम्मत्त पडिवण्णपढमसमए संसारमणतं सम्मत्तगुणेष छेत्तूण पुणो सो संसारो तेण अद्धपोग्गल-परियट्टमेत्तो कदो।" (जयधवल पु० २ पृ० ३९१)
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