Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ].
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समाधान - नित्य- निगोद से निकलकर मनुष्य होकर प्रथमोपशमसम्यग्दर्शन के प्रथम समय में अनन्तानन्त संसारकाल का छेद होकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल रह जाता है । यदि उस जीव का समाधिमरण हो तो अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल छिदकर मात्र सात प्राठ भवप्रमाण रह जाता है । ( मूलाचार अ. २ मा ४१ ) यदि वह जीव उसी भव में क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो जावे तो अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल कटकर चार भव रह जाता है । यदि तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लेवे तो तीन भव रह जाता है यदि क्षपकश्रेणी पर आरोहण करे तो तद्भव की शेष आयु प्रमाण
शेष रह जाता है। इसप्रकार जीव का परिणामों के द्वारा संसारकाल छिद जाता है । भरतजी के वर्धनकुमार आदि ६२३ पुत्रों ने जब क्षायिकसम्यग्दर्शन ग्रहण किया और क्षपकश्रेणी पर आरूढ हुए तो वह अर्धपुद्गल परिवर्तन संसारकाल कटकर तद्भव शेषायु प्रमाण रह गया । अतः उक्त दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है ।
- जै. ग. 1-2-68 / VII / ध. ला. सेठी
सम्यक्त्व का माहात्म्य - १. सम्यक्त्व से ही अनन्त संसार सान्त होता है २. नियतिवाद - एकान्त मिथ्यात्व से सम्यक्त्व के माहात्म्य को प्राँच प्राती है ३. मोक्ष जाने का काल नियत नहीं है
शंका- ऐसा कहा जाता है कि सम्यग्दर्शन के द्वारा अनंतसंसारकाल कटकर अर्धपुलपरिवर्तनमात्र रह जाता है । प्रत्येक जीव के मोक्ष जाने का कालनियत है । जब मोक्ष जाने का काल नियत है तो उसका संसार काल भी नियत है । यदि संसारकाल घट सकता है तो मोक्ष जाने का काल नियत
नहीं, क्योंकि मोक्षपर्याय अपने नियत काल पर ही होगी आगे-पीछे नहीं ही विकत नहीं रहता है. ऐसा है सकती । अतः सम्यग्दर्शन के द्वारा
अनन्त संसारकाल कटकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र काल नहीं रहता है ।
समाधान-नियतिवाद एकांत मिथ्यात्व का ऐसा नशा बढ़ा है कि दिगम्बर जैन श्रार्ष ग्रंथों पर भी श्रद्धा नहीं रही और सम्यग्दर्शन के महात्म्य से भी इन्कार होने लगा ।
अनादिमिथ्यादष्टि जिसका संसारकाल अनन्त है वह सम्यक्त्व गुण के द्वारा अनन्तसंसार काल को घटाकर पुद्गल परिवर्तन मात्र कर देता है। श्री वीरसेन आचार्य ने कहा भी है
" एगो अणाविय मिच्छादिट्ठी अपरित्तसंसारो अधापवत्तकरणं अपुष्वकरणं अणियट्ठिकरणमिवि एवाणि तिष्णि करणाणि काढूण सम्म गहिबपढमसमए चेव सम्मत्तगुरोण पुम्बिल्लो अपरितो संसारो ओहट्ठिन परितो पोग्गल परियट्टस्स अद्धमेत्तो होतॄण उक्कसेण चिट्ठदि ।" ( धवल पु. ४ पृ. ३३५ ) ।
अर्थात् — एक अनादिमिथ्यादृष्टि अपरीत ( जिसका संसार अमर्यादित अर्थात् अनन्तसंसार शेष है ) संसारी जीव, अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण इन तीनों ही करणों को करके सम्यक्त्वग्रहण के प्रथम समय में ही सम्यक्त्वगुण के द्वारा पूर्ववर्ती अनन्त संसारीपना घटाकर अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परिवर्तनमात्र शेष संसार काल की मर्यादा कर देता है ।
"एक्को अणदियमिच्छादिट्ठी तिष्णि करणाणि करिय सम्मत्तं पडिवण्णे तेण सम्मतण उप्पज्जमान अतो संसारी द्विण्णो संतो अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो" ( धवल पु. ४ पृ. ४७९ ) ।
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अर्थ – कोई एक अनादिमिध्यादृष्टिजीव तीनोंकरणों को करके सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ । उत्पन्न होने के साथ ही उस सम्यक्त्व के द्वारा शेष अनन्त संसार काटकर अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल मात्र कर दिया गया ।
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