Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ३८३
"एगो अणावियमिच्छाविट्ठी अपरित्तसंसारो अधापवत्तकरणं अपुवकरणं अणियट्टिकरणमिदि एवाणितिणि करणाणि कादूण सम्मत्तंगहिवपढमसमए चेव सम्मत्तगुणेण पुग्विालो अपरितो संसारो ओहट्टिदूण परितो पोग्गलपरियगुस्स अद्धमेत्तो होदूण उक्कस्सेण चिदि।"
अर्थ-एक अनादिमिथ्याइष्टि अपरीतसंसारी (जिसका संसार काल अमर्यादित है ऐसा ) जीव प्रधः करण, रण, अनिवृत्तिकरण इस प्रकार तीनों ही करणों को करके सम्यक्त्वग्रहण के प्रथमसमय में ही सम्यक्त्वगुण के द्वारा पूर्ववर्ती अपरीत ( अमर्यादित ) संसारीपना हटाकर व परीतसंसारी होकर अधिक से अधिक पुद्गलपरिवर्तन के आधेकालप्रमाण ही संसार में ठहरता है। (धवल पु० ४ पृ० ३३५)
"एक्को अणादि मिच्छादिट्री तिण्णि करणाणि करिय सम्म पडिवण्णो। तेण सम्मत्रोण उप्पज्जमारपेण अणंतो संसारो छिण्णो संतो अद्धपोग्गलपरियटमेत्तो कदो।"
अर्थ-कोई एक अनादिमिथ्याष्टिजीव तीनोंकरणों को करके सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। उत्पन्न होने के साथ ही उस सम्यक्त्व से अनन्तसंसार छिन्न होता हुआ अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालमात्र कर दिया गया।
"मिथ्यावर्शनस्यापभयेऽसंयतत्सम्यग्दृष्टेरनंतसंसारस्य क्षीयमाणत्वसिधेः।" ( श्लोकवार्तिक १।१।१०५ )
अर्थ-मिथ्यादर्शन का नाश हो जाने पर असंयतसम्यग्दृष्टि के अनन्तकालतक परिभ्रमणरूप संसार का क्षय हो जाता है, यह बात सिद्ध है। इसी बात को स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा में भी कहा है
चदुग्गवि-भव्यो सग्णी सुविसुद्धो जग्गमाण-पज्जत्तो। संसार-तडे णियडी गाणी पावेइ सम्म ।। ३०७॥
संस्कृत टीका-संसारतटे निकटः सम्यक्त्वोत्पत्तितः उत्कृष्टेन अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालपर्यन्तं संसारस्थायी. त्यर्थः॥ ३०७॥
इस गाथा में 'संसार तडेणियडो' आये हए वाक्य का अर्थ करते हए श्री शुभचन्द्र आचार्य ने लिखा है कि 'जिसके सम्यक्त्वउत्पत्ति से संसारकाल उत्कृष्टरूपसे अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र रह जाता है वह जीव संसार तट
पर भी सम्यक्त्वोत्पत्ति से ही संसारकाल अर्धपद्गलपरिवर्तनमात्र बतलाया है। यदि अर्धपद्गलपरिवर्तनसंसारकाल शेष रहने पर सम्यक्त्वोत्पत्ति की योग्यता मानी जायगी तो सम्यक्त्व के द्वारा संसार स्थिति का क्षय संभव नहीं है। तब तो सम्यक्त्व का फल इन्द्र, चक्रवर्ती आदि पद की प्राप्ति अर्थात् सांसारिकसुख की प्राप्ति रह जायगी। अतः सम्यग्दर्शन के द्वारा संसारस्थिति छिदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र रह जाती है। ऐसा श्री वीरसेन आदि आचार्यों ने कहा है।
यह एक मत है, किन्तु दूसरा मत भी है। इस दूसरे मतानुसार प्रथमोपशमसम्यक्त्व से पूर्व होने वाले करणलब्धि के द्वारा (१) दर्शनमोहनीयकर्म की मिथ्यात्वप्रकृति-द्रव्य के तीनभाग ( सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति, मिथ्यात्वप्रकृति ) कर दिये जाते हैं और (२) अनादिमिथ्यादृष्टि अपरीत ( अमर्यादित ) संसारस्थिति को छेदकर अर्धपूगलपरिवर्तनमात्र संसारस्थिति कर देता है तथा उत्कृष्ट कर्मस्थिति को काटकर अन्तः कोटाकोटी कर
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