Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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"एक्केण अणादिय मिच्छाविट्ठिणा तिष्णि करणाणि काढून उबसमसम्म संसारो छिनो अयोग्गलपरियट्टमेतो कदो ।" ( धवल पु. ५ पृ. ११) ।
अर्थ – एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव ने अधः प्रवृत्तादि तीनोंकरण करके उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त होने के प्रथमसमय में शेष अनंतसंसार को छिन्नकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र किया ।
"अप्पड व सम्मत अणादि-अनंतो भविय भावो अंतादीदसंसाराबो, पडिवो सम्मत अण्णो भविय भावो उप्पज्जइ, पोग्गलपरियदृस्स अद्धमेत्तसंसारावट्ठाणादो ।" ( धवल पु. ७ पृ. १७७ ) ।
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
पडिवण्णपढमसमए अनंतो
अर्थ- जब तक सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया तब तक जीव का भव्यत्व भाव अनादि- प्रनन्त है, क्योंकि तब उसका संसारकाल अन्तरहित है । किन्तु सम्यक्त्व के ग्रहण कर लेने पर अन्य ही भव्यभाव उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि सम्यक्त्व के उत्पन्न हो जाने पर केवल अर्धंपुद्गल परिवर्तनमात्रकाल तक संसार में स्थिति रहती है ।
इन आर्ष ग्रंथों से सिद्ध है कि अनादिमिध्यादृष्टिजीव का शेष संसारकाल घट जाता है । जब शेष संसार काल घट सकता है तो मुक्तिकाल नियत नहीं हो सकता, क्योंकि संसारकाल की समाप्ति और मुक्तिकाल का प्रारंभ दोनों का एक ही समय अर्थात् समकाल है । इसीलिए सब जीवों का मुक्तिप्राप्तकाल नियत नहीं है ।
भव्य जीव अपने नियतकाल के अनुसार ही मोक्ष जायगा इस शंका के उत्तर में श्री अकलंकदेव ने कहा है कि मोक्ष जाने का काल नियत नहीं है ।
"यतो न भव्यानां कृत्स्नकर्मनिर्जरापूर्वक मोक्षकालस्य नियमोऽस्ति । केचि भव्याः संख्येयेन कालेन सेत्स्यन्ति केचिदसंख्येयेन, केचिदन्तेन, अपरे अनंतानन्तेनापि न सेत्स्यन्तीति, ततश्च न युक्तमृ-मव्यस्य कालेन निःक्षयसोपपत्त े: इति ।" 'यदि सर्वस्य कालो हेतुरिष्टः स्यात्, बाह्याभ्यन्तर कारण नियमस्थ दृष्टस्येष्टस्य वा विरोधः स्यात् "' ( राजवार्तिक १०३ )
अर्थात् - भव्यों के समस्त कर्मों की निर्जरा से होने वाले मोक्ष के काल का कोई नियम नहीं है । कोई जीव संख्यातकाल में मोक्ष जायगा, कोई प्रसंख्यात और कोई अनन्तकाल में मोक्ष जायगा । कोई अनन्तानन्तकाल तक भी मोक्ष नहीं जायेंगे । 'इसलिये भव्यों के मोक्ष जाने के काल का नियम है', ऐसा कहना ठीक नहीं है । यदि अर्थात् सबही में एक काल को ही कारण मान लिया जावे तो प्रत्यक्ष अभ्यन्तर कारणों से विरोध आजावेगा अर्थात् बाह्य और प्राभ्यन्तर
सब ही के काल का नियम मान लिया जावे व परोक्ष प्रमारण के विषयभूत बाह्य और कारणों के अभाव का प्रसंग आजायगा ।
सम्यष्टि विचार करे हैं 'काललब्धि व होनहार तो किछु वस्तु नाहीं । जिस काल विषै जो कार्य होय है सोई काललब्धि और जो कार्य भया सोई होनहार है ।' जो मिथ्यादृष्टि ऐसा कहते हैं कि जब होनहार होगी तब सम्यग्दर्शन होगा, उससे आगे पीछे सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता । उसको सम्यग्दष्टि कहता है- 'यदि तेरा ऐसा श्रद्धान है तो सर्वत्र कोई कार्य का उद्यम मति करे। तू खान-पान, व्यापार आदि का तो उद्यम करे, और यहाँ होनहार बतावे, सो जानिए है तेरा अनुराग यहाँ नहीं है ।'
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- जै. ग. 6-3-66 / IX / .......
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