Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व].
[ ३६७
. ..... क्या क्षायिकसम्यक्त्व वीतराग सम्यक्त्व है ?
शंका-अमितगति भावकाचार २१६५.६६ में क्षायिकसम्यक्त्व को वीतरागसम्यक्त्व और उपशम-क्षयोपसम को सरागसम्यक्त्व कहा है। ऐसा कथन किस अपेक्षा से है ? 'वीतरागचारित्र से अविनाभूत वीतरागसम्यक्त्व है' इस कथन का अमितगतिश्रावकाचार के कथन से कैसे समन्वय हो सकता है?
.. समाधान-श्री अमितगतिआचार्य ने यह कथन भी तस्वार्थ-राजवातिक प्रथम अध्याय सूत्र २ वातिक
आधार पर किया है। इसका ऐसा अभिप्राय ज्ञात होता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि ही क्षपकश्रेणी में चारित्रमोहनीयकर्म का क्षयकर पूर्ण वीतरागी हो सकता है, अतः क्षायिकसम्यग्दर्शन को वीतराग कहा है। क्षयोपशम और उपशमसम्यग्दृष्टि चारित्रमोह का क्षय नहीं कर सकते, अतः उनको सरागसम्यग्दर्शन कहा है।
चारित्रमोह का क्षय हो जाने पर वीतरागचारित्र होता है उसके साथ रहने वाला क्षायिकसम्यग्दर्शन वीतरागसम्यग्दर्शन है । इस कथन में उपशांतमोह की विवक्षा नहीं है, क्योंकि वहां पर चारित्रमोह का सद्भाव है।
इस पर भी यह विषय विशेष विचारणीय है।
-जें. ग.6-12-65/VIII/र.ला.जैन, मेरठ
(१) विभिन्न यथाल्यात चारित्र
(२) प्रौपशमिक भाव से क्षायिक भाव प्रकृष्ट शुद्धिवाला है .. . (३) चतुर्थगुणस्थान के क्षायिकसम्यक्त्व से त्रयोदशगुणस्थान के क्षायिकसम्यक्त्व में अन्तर नहीं है ..
..
. : शंका-जिसप्रकार ११-१२-१३-१४ में गुणस्थान के बजात्यातचारित्र में कोई अन्तर नहीं है उसी. प्रकार क्षायिकसम्यक्स्व होनेपर चौथे गुणस्थान के सम्यग्दर्शन में और १३ गुणस्थान के सम्यग्दर्शन में भी कोई अन्तर नहीं होना चाहिये।
समाधान-११-१२-१३-१४ वें गुणस्थान में चारित्रमोहनीयकर्म के उदय का अभाव होने से सब कषायों का अभाव है। इन चारों गुणस्थानों में पूर्णवीतरागता होने से एक ही संयमलब्धिस्थान है । कहा भी है
"एवं जहाक्यावसंजमछाणं उबसंतचीण-सजोगी अजोगीणमेक्क व जहणकस्सबदिरितं होदि. कसायाभावादो।" (धवल पु० ६ पृ० २८६ )
मर्ष-यह माख्यातसंवमस्थान उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इनके एक ही जघन्य व उत्कृष्ट भेदों से रहित होता है, क्योंकि इन सबके कषायों का अभाव है ।
यद्यपि कषाय के अभाव की अपेक्षा चारों गुणस्थानों में यथास्यातचारित्र का एक ही संयमलन्धिस्थान है और उस स्थान में हीनाभिकता भी नहीं है तथापि ग्यारहवें गुणस्थान के औपशमिकयथाख्यातचारित्र की अपेक्षा बारहवें आदि गुणस्थान के क्षाविकचारित्र में अधिक विशुद्धता है, क्योंकि कर्मों से अत्यन्त निवृत्त होने पर क्षायिकभाव होता है । कहा भी है
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