Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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भरतक्षेत्र में पंचमकाल में मनुष्य क्षायिकसम्यग्वष्टि नहीं हो सकता, क्योंकि केवली और तीर्थंकर का प्रभाव है । कहा भी है
"दंसणमोहणीयं कम्म खवेदुमाढवेंतो कम्हि आढवेबि, अड्डाइज्जेसु बीव-समुद्देसु पष्णरसकम्मभूमीसु जहि जिणा केवली तिमयरा तम्हि आढवेदि ॥११॥ ( भ्रवल पु० ६ पृ० २४३ )
अर्थ-दर्शनमोहनीयकर्म का क्षपण करने के लिये प्रारम्भ करता हुआ यह जीव कहाँ पर आरम्भ करता है ? अढाई द्वीप समुद्रों में स्थित पन्द्रह कर्मभूमियों में जहाँ जिसकाल में जिन, केवली और तीर्थंकर होते हैं वह उस काल में आरम्भ करता है ।
कम्मभूमिजो
केव लिसुद केवलीमूले
मणुसो ।
दंसणमोहक्खवणापgaगो तित्थपरपायमूले
॥ ११० ॥
णिटुवगो तट्ठाणे विमाणभोगावणीसु धम्मे य ।
fear णिज्जो चसुवि गदीसु उप्पज्जवे जम्हा ||१११॥ ( लब्धिसार )
अर्थ - जो मनुष्य कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ हो वही मनुष्य केवली, श्रुतकेवली या तीर्थंकर के पादमूल में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भक होता है । जहाँ पर प्रारम्भक होता है वहाँ पर भी निष्ठापक होता है अथवा सौधर्मादि वैमानिकदेवों में, भोगभूमिया मनुष्य में, भोगभूमिया तियंचमें, धम्मा नामक प्रथम नरक में भी निष्ठापक होता है, क्योंकि कृतकृत्यवेदक या क्षायिकसम्यग्दृष्टि मरकर वैमानिकदेवों में भोगभूमिया मनुष्य-तियंचों में तथा प्रथमनरक में ही उत्पन्न होता है, अन्यत्र उत्पन्न नहीं होता ।
इन आर्षवाक्यों से स्पष्ट हो जाता है कि क्षायिकसम्यग्दष्टि मरकर न भरतक्षेत्र में पंचमकाल में उत्पन्न होता है और न पंचमकाल का उत्पन्न हुआ मनुष्य क्षायिकसम्यग्दर्शन को उत्पन्न कर सकता है ।
- जै. ग. 11-3-71 / VII / सुल्तानसिंह
उपशमसम्यक्त्व से क्षायिकसम्यक्त्वी प्रतिविशुद्ध है
शंका- क्या उपशमसम्यक्त्वी से क्षायिकसम्यक्त्वी की विशुद्धि अधिक है ? कैसे ?
समाधान - उपशमसम्यग्दृष्टि से क्षायिकसम्यग्दष्टि की विशुद्धि अधिक है, क्योंकि उपशमसम्यक्त्वी के कर्मपुद्गल की सत्ता है और वह अन्तर्मुहूतं पश्चात् नियम से च्युत हो जाता है । क्षायिकसम्यग्दृष्टि के दर्शनमोह की सत्ता नहीं है और वह क्षायिकसम्यग्डष्टि कभी स्वसम्यक्त्व से च्युत नहीं होता । धवल पु० १२ में प्रथम चूलिका में निर्जरा का कारण विशुद्धपरिणाम कहा है । उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त होनेवाले जीव की अपेक्षा दर्शनमोहक्षपक जीव के अधिक निर्जरा होती है, ऐसा निर्जरा के ११ स्थानों के कथन में कहा गया है ।
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हाँ, अनुदय की अपेक्षा इन दोनों सम्यक्त्वों में कोई अन्तर नहीं है ।
- पत्राचार 14-11-80 / ज. ला. जैन, भीण्डर
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