Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
३४४ ]
हो सकता है । अतः उनकी अपेक्षा सर्वोपशमसम्यक्त्व भी पुनः पुनः होता है, ऐसा लिखा गया है। ये जीव कर्मभूमियामनुष्यों से असंख्यातगुणे हैं। इसलिए इन असंख्यातवर्षं श्रायुवालों की अपेक्षा से कथन करना अनुचित भी नहीं है, क्योंकि हम अल्प आयुवाले कर्मभूमिया हैं इसलिए इस कथन को पढ़ते समय हमारी दृष्टि असंख्यातवर्ष आयु वाले जीवों पर नहीं जाती और शंका उत्पन्न हो जाती है ।
प्रथमबार सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद मिथ्यात्व में जाने का नियम नहीं
शंका-अनादिमिथ्यादृष्टि के उपशमसम्यक्त्व होने के पश्चात् नियम से मिथ्यात्व होगा या नहीं ? जिसने द्वितीय या तृतीय बार उपशमसम्यक्त्व प्राप्त किया है, ऐसे सादिमिध्यादृष्टिजीव के उपशमसम्यवत्व के पश्चात् मिथ्यात्व ही होगा या क्षयोपशम भी हो सकता है ?
- जै. ग. 14-12-67/ VIII / र. ला. जैन
समाधान — अनादिमिथ्यादृष्टि के उपशमसम्यक्त्व होने के पश्चात् मिथ्यात्व ही होगा, ऐसा कोई नियम नहीं है। धवल पु० ५ पृ० १९ पर कहा भी है
"एक अनादिमिध्यादृष्टिजीव ने तीनों ही करण करके उपशमसम्यक्त्व और संयम को एक साथ प्राप्त होने के प्रथम समय में ही प्रनन्तसंसार को छेदकर अर्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र करके अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण अप्रमत्तसंयत के काल का अनुपालन किया, पीछे प्रमत्तसंयत हुआ, पुनः वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त हो द्वितीयोपशमसम्यक्त्व को ग्रहणकर, सहस्रों प्रमत्त- श्रप्रमत्तपरिवर्तनों को करके उपशमश्रेणी के योग्य अप्रमत्त-संयत हो गया, पुनः अपूर्व - करण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय उपशांतकषाय हो गया ।"
इस में यह बतलाया गया है कि अनाविमिध्यादृष्टि जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त कर मिथ्यात्व में नहीं गया, किन्तु क्रमशः क्षयोपशम व द्वितीयोपशमसम्यक्त्वी होकर ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँच गया ।
ज० ध० पु० ९ पृ० ३०९ - ३१० पर तो अनादिमिथ्यादृष्टि के प्रथमोपशमसम्यक्त्व के पश्चात् वेदक व क्षायिकसम्यक्त्व की उत्पत्ति बतलाई गई है, जो इस प्रकार है
" अनादिमिथ्यादृष्टि के सम्यक्त्व को उत्पन्न करने पर अन्तर्मुहूर्त काल तक गुरणसंक्रमण होता है, उसके बाद विध्यात संक्रमण को प्राप्त हुए उसके निरंतर अल्पतरसंक्रमण अंतर्मुहूर्त प्रमाण उपशमसम्यक्त्व का काल शेष रहने तक तथा कुछ कम छ्यासठसागरप्रमाण वेदकसम्यक्त्व के काल के पूर्ण होने तक होता रहता है । उसमें वेदकसम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त काल के शेष रहने पर क्षपणा ( क्षायिकसम्यक्त्व ) के लिये उद्यत हुए उसके अपूर्व - करण ( दर्शनमोहनीयकर्म की क्षपणा के लिए अपूर्वकरण ) के प्रथमसमय में गुणसंक्रमण का प्रारम्भ होने से प्रल्पतरसंक्रमण का अन्त होता है ।"
इससे सिद्ध होता है कि अनादिमिथ्यादृष्टि के प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न होने के पश्चात् मिध्यात्व में जाने का नियम नहीं है, किन्तु वह वेदकसम्यग्दृष्टि होकर क्षायिकसम्यग्दृष्टि भी हो सकता है ।
धवल पु० २ पृ० ५६६ तथा पु० ६ पृ० २४२ व कषायपाहुड़ सुत्त आदि में अशुद्ध अर्थ होने के कारण यह भ्रम हो जाता है कि अनादिमिथ्यादृष्टि प्रथमोपशमसम्यक्त्व प्राप्त करने के पश्चात् नियम से मिथ्यात्व में जाता है, किन्तु उपर्युक्त श्रार्ष ग्रन्थों से यह सिद्ध होता है कि ऐसा नियम नहीं है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org