Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ।
"पन्द्रह कर्मभूमियों में ऐसा सामान्य पद कहने पर कर्मभूमियों में स्थित देव, मनुष्य और तियंच इन सभी का ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होता है ? नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए मनुष्यों की उपचार में 'कर्मभूमिया' यह संज्ञा दी गई है यदि कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए जीवों की 'कर्मभूमि' यह संज्ञा है तो भी तियंचों का ग्रहण प्राप्त होता है, क्योंकि उनकी भी कर्मभूमियों में उत्पत्ति होती है ? यह शंका भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिनकी वहाँ पर ही उत्पत्ति है और अन्यत्र उत्पत्ति संभव नहीं है, उन्हीं मनुष्यों के पन्द्रह कर्मभूमियों का व्यपदेश किया गया है, न कि स्वयंप्रभपर्वत के परभाग में उत्पन्न होने से व्यभिचार को प्राप्त तियंचों के।
बसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजावो दु ।
णियमा मणुसगदीए गिट्ठवगो चावि सव्वस्थ ॥११०॥ क. पा. सुत्त । अर्थ-नियम से कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ और मनुष्यगति में वर्तमान जीव ही दर्शनमोह की अपणा का प्रारम्भ करने वाला होता, किन्तु निष्ठापक चारों गतियों वाला हो सकता है।
-णे. ग. 28-12-72/VII/क. दे. वेदक सम्यक्त्वी तीर्थकर का जीव केवलिद्वय के पादमूल बिना भी
दर्शनमोह को शपणा कर लेता है शंका-क्षयोपशमसम्यष्टि नरक या स्वर्ग से आकर तीर्थकर का जन्म लेता है उनको क्षायिकसम्यक्त्व कैसे प्राप्त हो सकेगा? कारण तीर्थकर तो अयस्थ-अवस्था में मुनियों का दर्शन नहीं करते हैं, फिर उनको केवली या अतकेवली का सान्निध्य कैसे संभव है ? केवली-अत केवली के सान्निध्य के बिना क्षायिकसम्यक्त्व नहीं हो सकता । क्षायिकसम्यक्त्व के बिना मुक्ति नहीं हो सकती।
समाधान-तीर्थकरप्रकृति का बंध करनेवाला क्षायोपशमिकसम्यग्दष्टिजीव नरक या स्वर्ग से आकर, स्वयं श्रतकेवली होकर, क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो सकता है। इस सम्बन्ध में श्री वीरसेन आचार्य ने धवल प. सत्र १० की टीका में निम्न प्रकार कहा है
"एदाणं तिण्हं पि पादमूले दसणमोहक्खवणं पठ्ठवेंति ति। एत्थ जिण सहस्स आवत्ति काऊण जिणा 'सणमोहक्खवणं पट्ठवेंति त्ति बत्तन्वं, अण्णहा तइयपुढवीदो णिग्गयाणं कव्हावीणं तित्थयरत्ताणुववत्तीदो त्ति के सिंचि वक्खाणं ।"
. अर्थ-तीर्थकरकेवली, सामान्यकेवली, श्रुतकेवली इन तीनों के पादमूल में कर्मभूमिजमनुष्य दर्शनमोह का क्षपण प्रारम्भ करते हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिये । यहाँ पर 'जिन' शब्द की प्रावृत्ति करके अर्थात् दुबारा ग्रहण करके, जिन दर्शनमोहनीयकर्म का क्षपण प्रारम्भ करते हैं ऐसा कहना चाहिये । अन्यथा तीसरी पृथ्वी से निकले हुए कृष्ण आदिकों के तीर्थङ्करत्व नहीं बन सकता है।
श्री कृष्णजी ने श्री नेमिनाथ भगवान के समवसरण में तीर्थंकरप्रकृति का तो बंध कर लिया था, किन्तु उनको क्षायिकसम्यक्त्व उत्पन्न नहीं हुआ था। सम्यक्त्व से पूर्व श्रीकृष्ण ने नरकायु का बंध कर लिया था। अतः वे मरकर तीसरे नरक में उत्पन्न हए। वहाँ से क्षयोपशमसम्यक्त्व के साथ निकल कर तीर्थकर होंगे। अब प्रश्न
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