Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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होता है कि उनको क्षायिकसम्यक्त्व कैसे प्राप्त होगा। इसके समाधान के लिये भी वीरसेन आचार्य ने धवलग्रंथ में लिखा है जो स्वयं 'जिन' प्रर्थात् श्रुतकेवली होते हैं वे स्वयं दर्शनमोहनीयकर्म की क्षपणा प्रारम्भ करते हैं, उनको अन्य केवली या श्रुतकेवली के पादमूल की प्रावश्यकता नहीं होती है । "
- जै. ग. 16-4-70/ VII / ब्र. ही. खु. दोसी, फलटण क्षायिक सम्यक्त्व की पहिचान
शंका- क्षायिक सम्यग्दर्शन को क्या पहचान है ?
समाधान- दर्शनमोहनीयकर्म की तीन प्रकृतियों ( मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, मिश्र ) के नाश से तथा अनन्तानुबंधीचतुष्क ( अनन्तानुबन्धी कोष मान-माया-लोभ ) के विसंयोजनारूप क्षयसे जो अविनाशी सम्यग्दर्शन होता है। वह क्षायिकसम्यग्दर्शन है। अर्थात् कर्म की सातप्रकृतियों के क्षय से क्षायिकसम्यग्दर्शन होता है ।
अवधिज्ञानी मुनि इन सात प्रकृतियों के द्रव्यकर्म की सत्ता के प्रभाव को देखकर अनुमान - ज्ञान द्वारा क्षायिकसम्यग्दर्शन को जान सकते हैं । कार्मणवर्गरणा सूक्ष्म हैं, अतः वह पाँच इन्द्रियों का विषय नहीं है और न बाह्य में क्षायिकसम्यग्दर्शन का कोई ऐसा चिह्न है जो इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जा सके प्रतः क्षायिकसम्यग्दर्शन की पहिचान मतिज्ञान द्वारा नहीं हो सकती है ।
—जै. ग. 23-12-71 / VII / जै. म. जैन
व्रती के क्षायिक सम्यक्त्व हो सकता है, क्षायिक दर्शन नहीं
शंका- क्षायिकवर्शन क्या चौथे गुणस्थान में भी हो सकता है या तेरहवें गुणस्थान में ही होता है ?
समाधान --- दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों के तथा धनन्तानुबन्धी क्रोध - मान-माया लोभ इन सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिकसम्यग्दर्शन चतुर्थगुणस्थान में हो सकता है । दर्शनावरणकर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला क्षायिकदर्शन चतुर्थगुणस्थान में नहीं हो सकता, वह तेरहवें गुणस्थान में ही होगा, क्योंकि दर्शनावरण कर्म का उदय बारहवें गुणस्थान के अन्त समय तक रहता है ।
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क्षायिक सम्यक्त्व पंचमगुणस्थान वाले भी होते हैं
शंका- भेवज्ञान पुस्तक के पृ० १५६ पर यह कहा गया है कि जिस जीव ने तीर्थंकर गोत्र का बंध किया है वह अणुव्रत धारण करता ही नहीं है, मुनिव्रत ही धारण करता है। इस पर शंकाकार ने उत्तरपुराण पर्व ५३ श्लोक ३५ के आधार पर यह कहा कि तीर्थंकर अणुव्रती होते हैं। इसके समाधान में उक्त मेवज्ञान में यह लिखा है। 'तीर्थंकर की तो बात छोड़ दो, परन्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टि अणुव्रत धारण नहीं करता है अपितु सीधा महाव्रत हो धारण करता है। यही बात धवलग्रंथ नं० ५ पृ० २५६ पर लिखी है।' क्या क्षायिकसम्यग्दृष्टि अणुव्रती नहीं होते ?
१. See Also जयधवल पु० १३ पृ० ४ एवं प्रस्ता० पृ० १ ।
—जै. ग. 11-5-72 / VII /
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