Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
समाधान-प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्याष्टि के पांच लब्धियाँ होती हैं १. क्षयोपशमलब्धि २. विशुद्धिलब्धि, ३. देशनालब्धि, ४. प्रायोग्यलब्धि, ५. करणलब्धि । कहा भी है
खयउवसमिय विसोही देसणपाउग्गकरणलद्धी य । चत्तारि वि सामण्णा करणं सम्मत्तचारिसे ॥३॥(लन्धिसार)
अर्थ-क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य तथा करण ये पांच लब्धियां हैं। उनमें से पहली चार तो साधारण हैं अर्थात् भव्य जीव और अभव्य जीव दोनों के होती हैं। पांचवीं करणलब्धि सम्बक्त्व और चारित्र की तरफ झुके हुए भव्य जीव के होती है।
"छद्दव्व-णवपदस्थोवदेसो देसणा णाम । तीए देसणाए परिणदआइरियादीणमुवलंभो, देसिदत्यस्स गहण. धारण-विचारणसत्तीए समागमो अ वेसणलखीणाम ।" (धवल पु० ६ पृ० २०४)
अर्थ-छहद्रव्य और नौपदार्थों के उपदेश का नाम देशना है। उस देशना से परिणत आचार्य प्रादि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशनालब्धि कहते हैं।
उपदिष्ट छहद्रव्य और नौपदार्थों के ग्रहण, धारण और विचारण का फल प्रायोग्यलब्धि है, जिसका स्वरूप निम्न प्रकार है
"सव्वकम्माणमुक्कस्स द्विविमुक्कस्साणुभागं च धादिय अंतोकोडाकोडीदिविम्हि वेढाणासुभागे च अबढाणं पाओग्गलद्धी णाम।"
. अर्थ-सर्वकर्मों की उत्कृष्टस्थिति और अप्रशस्तकों के उत्कृष्ट अनुभाग का घात करके अन्तःकोडाकोडी स्थिति में और द्विस्थानीय में अवस्थान करने को प्रायोग्यलब्धि कहते हैं। (धवल पु०६ पृ० २०४)
इन पार्षवाक्यों से यह स्पष्ट है कि 'प्रायोग्य' चौथी लब्धि में सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता है. क्योंकि वह प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख है।
देशनालब्धि के स्वरूप से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उस जीव को सर्वज्ञ कथित छहद्रव्य नौपदार्थ का उपदेश मिलता है और वह उन छहद्रव्य नौपदार्थों को ग्रहण करता, धारण करता है और विचार करता है जिसके फलस्वरूप कर्मों का स्थितिघात और अनुभाग घात हो जाता है। गृहीतमिध्याहृष्टि के यह संभव नहीं है। अतः प्रायोग्यलब्धि में गृहीतमिथ्यात्व भी नहीं रहता है। मिथ्यात्व का हल्का उदय रहता है।
-जं. ग. 17-6-71/IX/ रो. ला. मित्तल सम्यक्त्वप्राप्ति के पूर्व प्रायोग्यलब्धि में मिथ्यात्व का बन्ध नहीं रुकने का कारण
शंका-प्रायोग्यलब्धि का क्या स्वरूप है ? बन्धापसरण क्या है ? प्रायोग्यलब्धि में ४६ प्रकृतियों का बंध कक जाने पर भी मिथ्यात्व का बन्ध क्यों नहीं रुकता है ?
समाधान-धबल पु० ६ पृ. २०४ पर प्रायोग्यलब्धि का स्वरूप निम्न प्रकार कहा है
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