Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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व ९४ लब्धिसार का अर्थ स्पष्ट हो जायगा। मान लो प्रथम स्थिति १० बजे समाप्त होती है और चार मिनट की आवली होती है। एक मिनट एक समय है। दो प्रावली में पाठ मिनट होते हैं। इस मान्यता के अनुसार-जो मिथ्यात्व कर्म ८ मिनट कम १० बजे बँधा था वह ४ मिनट कम दस बजे तक तो अचल रहेगा, क्योंकि बन्ध से ४ मिनट ( एक आवली) तक हर एक कर्म अचल रहता है। इसके पश्चात् ४ मिनट (एक आवली) इसके उपशमाने में लगेगी। अर्थात् इसकी उपशमना १० बजे तक समाप्त हो जावेगी। जो कर्म ७मिनट कम १० बजे बंधा था, वह ३ मिनट कम १० बजे तक तो अचल रहेगा फिर ४ मिनट ( एक आवली ) उसके उपशमाने में लगेंगे प्रर्थात उसकी उपशमना १० बज कर एक मिनट पर समाप्त होगी अथवा प्रथम स्थिति बीत जाने के एक समय बाद समाप्त होगा। इसी प्रकार जो कर्म ६ मिनट कम १० बजे बँधा था वह चार मिनट ( एक भावली) तक अर्थात् २ मिनट कम १० बजे तक अचल रहेगा फिर चार मिनट ( एक आवली) उसके उपशमाने में लगेंगे अर्थात उसकी उपशमना १० बजकर २ मिनट पर समाप्त होगी अथवा जो कर्म प्रथम स्थिति से दो समय कम दो आवली पहले बँधा था, उसकी उपशमना प्रथम स्थिति के दो समय बाद तक पूर्ण होगी। इसी प्रकार जो कर्म ५ मिनट कम १० बजे ( तीन समय कम दो मावली प्रथम स्थिति की समाप्ति से पहले )बंधा था उसकी उपशमना १० बज कर तीन मिनट ( प्रथम स्थिति के तीन समय ) बाद पूर्ण होगी अतः जो मिथ्यात्व कर्म प्रथम स्थिति के अन्तिम समय ( १० बजे ) बंधा है उसकी उपशमना एक समय कम दो आवली बाद ( १० बज कर ७मिनट ) तक पूर्ण होगी।
-पलाचार 9-11-54/
""/ब. प्र. स.
प्रथमोपशम सम्यक्त्व का जघन्य अन्तरकाल
शंका-प्रथमोपशम सम्यक्त्व का जघन्य अन्तरकाल कितना है?
समाधान-प्रथमोपशमसम्यक्त्व का जघन्य अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवांभाग है. क्योंकि जलनकाण्डकों के द्वारा सम्यक्त्व और मिश्रप्रकृति की स्थिति का खण्डन करके पृथक्त्वसागर करने में पल्य का असंख्याताभाग काल लगता है । कहा भी है
"पढम सम्मत घेत्त ण अंतोमुहुसमच्छिय सासणगुणं गंतूणंदि करिय मिच्छत्तं गंतूणंतरिय सव्व जहणेण पलिदोवमस्स असंखविभागमेत व्वलेण कालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पढमसम्मत्तपाओग्ग सागरोबमपुत्तमेत द्विदि संतकम्म ठविय तिग्णि वि करणाणि पुणो पढमसम्मत्तं घेतूण । ( धवल पु. ७ पृ० २३३ ) ताणं दिदीओ अंतोमुहत्तण घादिम सागरोवमादो सागरोवम पुधात्तादो वा हेट्ठा किष्ण करेदी ? ण, पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमत्तायामेण अंतोमुहुत्तु कोरणकालेहि उज्वेल्लण खंडएहि धादिज्जमाणाए सम्मत्त-सम्ममिच्छत्तद्विदीए पलिदोवमस्स मसंखेज्जति भागमेत्तकालेण विणा सागरोवमस्स व सागरोबमपुधत्तस्स वा हेदा पदणाणुववसीदो" ( पृ०१०)
यहाँ पर यह बतलाया गया है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्व से गिरकर सासादन व मिथ्यात्व में आकर सम्यव और मिश्रप्रकृतियों का स्थितिसत्त्व, उद्वेलना के द्वारा, सागरोपम या सागरोपमपृथक्त्व या इससे कम हो जाता है, तब प्रथमोपशमसम्यक्त्व पुनः हो सकता है। इस स्थितिसत्त्व को करने में पल्योपम का असंख्यातवांभाग काल लगता है, क्योंकि अन्तमुहर्त उत्कीर्णकाल बाले उद्वेलनाकांडकों से बात की जाने वाली सम्यक्त्व और सम्यगिस.
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