Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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इसी प्रकार भोग भमिया मिथ्यादृष्टि मनुष्य के यद्यपि अन्त समय में पीतलेश्या है, किन्तु आयू क्षीण होते ही अशुभ तीन लेश्याओं में गिरता है। इसलिए धवल पु०२ पृ० ५४४-५४५ पर मिथ्याइष्टि भवनत्रिक देवों के अपर्याप्त अवस्था में 'भावेण किण्ह-णील-काउलेस्सा' यानी कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अशुभलेश्याएं कही हैं। वहाँ पीत लेश्या ( अपर्याप्त अवस्था में ) नहीं कही।
-पत्राचार 77-78/ ज. ला. जैन, भीण्डर
भवनत्रिक देवों के लेश्या शंका-भवन त्रिकदेवों के पर्याप्तअवस्था में कौनसी लेश्या हो सकती है ?
समाधान-भवनत्रिकदेवों के पर्याप्तअवस्था में पीतलेश्या होती है। कहा भी है-भवणवासियवाणवंतर. जोइसियाणं पज्जत्ताणं भण्णमारणे अत्वि दब्वेण छलेस्सा, भारेण जहणिया तेउलेस्सा । भवनत्रिक देवों के पर्याप्तकाल सम्बन्धी पालाप कहने पर द्रव्य से छहों लेश्याएँ, भाव से जघन्य तेजोलेश्या होती है। (१० ख० पु०२/५४४ )।
-0. सं. 10-1-57/VI/ दि. ज. स. एत्मादपुर
अशुभ लेश्या वाला भी कदाचित् भावलिंगी होता है शंका-स० मि० ९/४७ में "पुलाक के आगे की तीन लेश्या होती है", ऐसा लिखा है। आगे की तीन कौनसी? यह भी बतावें कि कृष्णादि अशुभलेश्यावाला भावलिंगी मुनि कैसे हो सकता है ?
समाधान-'पुलाक के आगे की तीन लेश्या होती हैं । इसमें 'मागे की तीन' इन शब्दों से स्पष्ट हो जाता है कि अन्त की तीन पीत, पद्म, शुक्ललेश्या होती हैं।
इस ४७ वें सूत्र की टीका में लिखा है-बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोः षडपि; अर्थात् बकुश और प्रतिसेवना कुशील के छहों लेश्याएं होती हैं। लेश्या में कुछ ऐसे भंश भी हैं जो छहों लेश्याओं में Common ( समान रूप से ) हैं । इसीलिए जीवकाण्ड में छहों लेश्याओं में चारों गतियों व आयु का बन्ध बताया है । "धूलिगछक्कठाणे चउराऊ।" टीका-पुलिरेखासदृशशक्तिगतेषु लेश्याषट्कस्थानेषु केषुधित् चत्वार्याय षि बध्यन्ते । अर्थ-धूलिभेदगत छहों लेश्यावाले प्रथम भेद के कुछ स्थानों में चारों आयुका बन्ध करता है।
___ अतः छहों लेश्यामों में होनेवाले समान अंशों की अपेक्षा बकुश और प्रतिसेवनाकुशील के छहों लेश्याएं कही गई हैं। किन्तु धवल में पांचवें गुणस्थान से मात्र तीन शुभ लेश्या कही गई हैं।
पूलाक, बकुश, कुशील प्रादि पांचों ही सम्यग्दृष्टि भावलिंगी मुनि होते हैं। कहा भी है-सम्यग्दर्शन निम्रन्थरूपं च भूषावेशायुधविरहितं तत्सामान्ययोगात् सर्वेषु हि पुलाकादिषु निर्ग्रन्थशब्दो युक्तः। चारित्रगुणस्यो. सरोत्तर प्रकर्षे वृत्तिविशेषख्यापनार्थः पुलाका पदेश क्रियते । ( रा० बा० ९/४७।१२।६३७ )।
अकलंकदेव ने कहा है कि पुलाक, बकुश आदि पांचों ही प्रकार के मुनि सम्बग्दर्शन व चारित्र से सहित होते हैं तथा परिग्रह रहित होते हैं अतः वे निर्ग्रन्थ हैं। उन मुनियों के चारित्र में तारतम्य बतलाने के लिए पुलाक मादि का व्याख्यान किया गया है।
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