Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ३०३
केवलज्ञान की सामर्थ्य युगपत् अनन्तलोक जानने की है शंका-जीव अक्षय-अनन्त हैं। उनके अनन्तानन्त गुरणे पुद्गल द्रव्य हैं, उनसे भी अनन्तानन्तगुरणे काल के समय हैं। उनसे भी अनन्तानन्तगुरणे आकाशद्रव्य के प्रदेश हैं। इन सब अनन्तानन्तराशियों को युगपत् एकसमय में केवलज्ञान कैसे जान सकता है ?
समाधान-इन सब अक्षयअनन्तानन्तराशियों का जितना योग होता है उससे भी अनन्तानन्तगुणे केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेद हैं जिनकी संख्या उत्कृष्टअनन्तानन्त है। श्री नेमचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने त्रिलोकसार में कहा भी है
अवराणताणंतं तिप्पडिरासि करित्तु विरलादि । तिसलागं च समाणिय लद्ध दे पक्खिवेदव्या ॥४८॥ सिद्धा णिगोदसाहियवणप्फदिपोग्गलपमा अणंतगुणा । काल अलोगागासंछच्चेदेणंतपक्खेवा ॥४९॥ तं तिष्णिवारवग्गिसंवग्गं करिय तत्थ दायन्वा । धम्माधम्मागुरुलघुगुणाविभागप्पडिच्छेदा ॥५०॥ लद्धतिवार वग्गिवसंवग्गं करिय केवले जाणे।। अवणिय तं पुण खित्त तमणंताणं तमुक्कस्सं ॥ ५१ ॥
अर्थ-जघन्यअनन्तानन्त की तीन प्रतिराशि स्थापित करके विरलनादि के क्रमतें तीन शलाकाओं को समाप्त करने पर जो मध्यमअनन्तानन्तराशि उत्पन्न होती है, उसमें सिद्धजीवराशि, तातें अनन्तगुणी निगोदजीवराशि, तातें साधिक वनस्पतिराशि, तातें अनन्तगुणी पुनलराशि, तातें अनन्तगुणा काल के समयनिका प्रमाण कालराशि, तातें अनन्तगुणा अलोकाकाश के प्रदेश; इन छह अनन्तराशियों का क्षेपण करना चाहिए। छह राशि को मिलाने के बाद जो लब्ध प्रावे उस महाराशि को तीनबार वगित संवगित करना है स्वरूप जिसका, ऐसे विरलन, देय और गुणन प्रादि क्रियाओं की पुनरावृत्ति द्वारा शलाकात्रय निष्ठापन कर जो विशदराशि उत्पन्न हो उसमें धर्मद्रव्य और अधर्म द्रव्य के अगुरुलघुगुण के अविभागप्रतिच्छेद मिलावने। इस प्रकार जो राशि उत्पन्न होय ताको तीन बार वगितसंगित करनेपर जो प्रमाण आवे उसको केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों में से घटाय जो लब्ध आवे, उस लब्ध को पूर्वोक्त केवलज्ञान की ऋणराशि में मिलाने पर केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों का प्रमाण होय है जो उत्कृष्टअनन्तानन्त संख्या है।
केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों का प्रमाण सर्वज्ञेयों से अनन्तानन्तगुणा होने के कारण, केवलज्ञान के द्वारा सर्वज्ञेयों का जानना संभव है। श्री अकलंकदेव ने राजवातिक में कहा भी है।
"यावाल्लोकालोकस्वभावोऽनन्तः तावन्तोऽनन्तानन्ता यद्यपि स्युः तानपि ज्ञातुमस्य सामर्थ्यमतीत्यपरिमित. माहात्म्यंतत् केवलज्ञानं वेदितव्यम् ।" ( १।२९।९ ) जितना यह लोक-अलोक है यदि उतने अनन्तलोक-अलोक हों तो उन्हें भी केवलज्ञान जान सकता है।
-णे. ग. 11-11-71/XII/ अ. कु. जैन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org