Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ३०१
त्रिलोकसार गाथा ५४ की टीका में श्री माधवचन्द्राचार्य विद्यदेव ने कहा है कि सर्वधारा में एक को आदि करके एक एक बढ़ते हुए केवलज्ञान पर्यन्त सर्व गणना गभित है। द्विरूप घनधारा का अन्तिम स्थान केवलज्ञान के द्वितीय वर्गमूल का घन है, किन्तु द्विरूप वर्गधारा चरम और द्विचरम राशि का घन, इस द्विरूप घनधारा का अन्तिम स्थान नहीं है, क्योंकि द्विरूप वर्गधारा की चरमराशि केवलज्ञान और द्विचरमराशि केवलज्ञान का प्रथम वर्गमूल का घन करने पर जो संख्या राशि उत्पन्न होगी वह केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों के प्रमाण से अधिक हो जायगी [ गाथा ८१.८२] । केवलज्ञान के अविभाग-प्रतिच्छेदों के प्रमाण से अधिक प्रमाण वाला न कोई द्रव्य है, न कोई क्षेत्र है, न काल है, न कोई भाव है। केवलज्ञान के और केवलज्ञान के प्रथमवर्गमूल के घन स्वरूप संख्यामों का कोई ( द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ) आधार न होने से उन संख्यात्रों को द्विरूपधनधारा का अन्तिम स्थान स्वीकार नहीं किया गया है। केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों के प्रमाण से अधिक प्रमाण वाला कोई द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव नहीं है; अत: केवलज्ञान को सर्वोत्कृष्ट राशि स्वीकार की गई है। इसलिये केवलज्ञान को Supremum adoptable Set लिखने में कोई बाधा नहीं है।
-जे.ग. 17-4-75/VI/ ल.च. जैन
केवलज्ञान का परद्रव्यों के साथ ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध
शंका-केवलज्ञान का परद्रव्यों व पर्यायों के साथ क्या कारण-कार्य सम्बन्ध है ?
समाधान-द्रव्य तो अनादि-अनन्त है। द्रव्य न तो नवीन उत्पन्न होता है और न द्रव्य का विनाश होता है। कहा भी है-एवं सदो विणासो असदो जीवस्स णस्थि उप्पादो। सत्पदार्थ जीवका नाश और असत् पदार्थ जीवका उत्पाद नहीं होता। द्रव्य अनादि-अनन्त होने से स्वयं न कारण है और न कार्य है। द्रव्यदृष्टि से द्रव्य में अकार्य-अकारण शक्ति पड़ी हुई है, किन्तु पर्याय सादि-सान्त है । सत्पर्यायका विनाश और असत्पर्याय का उत्पाद भी होता है। जैसे जीवद्रव्य अनादि-अनन्त होते हुए भी मनुष्य सत्पर्याय का विनाश और असत्देवपर्याय का उत्पाद देखा जाता है। पर्याय सादि-सान्त होने से कार्य भी है और कारण भी है। पर्याय की उत्पत्ति अन्तरंग व बहिरंग दोनों कारणों से होती है। । उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावातिरुत्पादनमुत्पादः।। सूत्र ३०) पूर्वपर्याय संयुक्तद्रव्य तो अन्तरंग कारण है ( स्वामी कातिकेयानुप्रेक्षा गाथा २२२ व २३० ) और अनेक प्रकार के सहकारी निमित्तकारण बाह्य कारण हैं। जिसप्रकार काल (समय, टाइम ) बाह्य कारण हैं उसी प्रकार अन्य द्रव्य की पर्याय व क्षेत्र भी निमित्त है। हर एक पर्याय अपने अन्तरंग व बहिरंग कारणों से उत्पन्न होती है। अन्य द्रव्यों की पर्यायों के लिए केवलज्ञान न अन्तरंगकारण है और न बहिरंगकारण है। अन्य द्रव्यों की पर्यायों के साथ केवलज्ञान का कार्यकारण सम्बन्ध नहीं है। केवलज्ञान स्वयं पर्याय है जिसके लिए क्षीणकषायगुणस्थान के अन्तिम समयवर्ती जीव तो अन्तरंग कारण हैं और ज्ञानावरण आदि कर्मों का क्षय बहिरंगकारण है।
अन्य द्रव्य व पर्यायों का केवलज्ञान के साथ कार्यकारण सम्बन्ध न होते हुए भी ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध अवश्य है। सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य अर्थात् केवलज्ञान का विषय सब द्रव्य और उनकी सब पर्याय हैं। पर द्रव्य के साथ केवलज्ञान का ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध व्यवहारनय से है जाणदि पस्सदि सव्वं, ववहारणयेण केवलीभय (नियमसार )। किन्तु व्यवहारनय का यह कथन असत्यार्थ नहीं है। यदि व्यवहारनय के कथन को असत्यार्थ माना जावेगा तो सर्वज्ञता का अभाव हो जावेगा अतः व्यवहारनय का कथन भी वास्तविक है। परिणमदो खल णाणं पंचवखा सम्व
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