Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व 1
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"कथं क्षीणोपशान्तकषायाणां शुक्ललेश्येति चेन्न, कर्मलेपनिमित्तयोगस्य तत्र सत्त्वापेक्षया तेषां शुक्ललेश्यास्तित्वाविरोधात् ।" (धवल पु० ११० ३९१)
अर्थ-जिन जीवों की कषाय उपशांत अथवा क्षीण हो गई है उनके शुक्ललेश्या होना कैसे संभव है ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि उनमें कर्मलेप का कारण योग पाया जाता है, इस अपेक्षा से उनके शुक्ललेश्या का सदभाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है।
"केण कारणेण सुक्कलेस्सा कम्म-णोकम्म-लेव-णिमित्त जोगा अस्थि ति" ( धवल पु० २ पृ० ४३९ )।
अर्थात-जब उपशांतकषायगुणस्थान में कषायों का उदय नहीं पाया जाता है तो शुक्ललेश्या का क्या कारण है ? उपशांत कषायगुणस्थान में कर्म और नोकर्म के निमित्तभूत योग का सद्भाव पाया जाता है, इसलिये शुक्ललेश्या है।
केवल योग या केवल कषाय को लेश्या नहीं कह सकते हैं क्योंकि लेश्या का लक्षण कषायानुरंजित योगप्रवृत्ति है। कहा भी है
"कषायानुरंजिताकायवाड-मनोयोगप्रवृत्तिलेश्या । ततो न केवलः कषायोलेश्या, नापि योगः अपितु कवाया। नुविखायोगप्रवृत्तिर्लेश्येति सिद्धम् ।" (धवल पु० १ पृ० १४९ )
अर्थ-कषाय से अनुरंजित काययोग, वचनयोग और मनोयोग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इस प्रकार लेश्या का लक्षण करने पर केवल कषाय या केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते हैं, किन्तु कषायानुविद्ध योगप्रवृत्ति को ही लेश्या कहते हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है ।
"योगकषायकार्याध्यति-रिक्तलेश्याकार्यानुपलम्भानताभ्यां पृथग्लेश्यास्तीति चेन्न, योगकषायाभ्यां प्रत्यनीकत्वाद्यालम्बनाचार्यादिबाह्यार्थसन्निधानेनापन्नलेश्याभावाभ्यां संसारवृद्धिकार्यस्य तत्केवलकार्याव्यतिरिक्तस्योपलम्भात् ।" (धवल १ पृ० ३८७)
अर्थ-योग और कषाय के कार्य से भिन्न लेश्या का कार्य नहीं पाया जाता है इसलिये उन दोनों से भिन्न लेण्या नहीं मानी जा सकती है ? नहीं, क्योंकि विपरीतता को प्राप्त हुए मिथ्यात्व, अविरति आदि के पालम्बनरूप आचार्यादि बाह्य पदार्थों के सम्पर्क से लेश्याभाव को प्राप्त हुए योग और कषायों से केवल योग और केबल कषाय के कार्य से भिन्न संसार की वृद्धिरूप कार्य की उपलब्धि होती है, जो केवल योग और केवल कषाय का कार्य नहीं कहा जा सकता है, इसलिये लेश्या उन दोनों से भिन्न है यह बात सिद्ध हो जाती है।
इसके कहने का अभिप्राय यह है कि कषाय के बिना मात्र योग से मात्र ईर्यापथआस्रव होता है जो उसी समय निर्जरा को प्राप्त हो जाता है अतः वह संसारवृद्धि का कारण नहीं हो सकता । मात्र कषाय भी संसार वद्धि का कारण नहीं है, क्योंकि योग के द्वारा होने वाले कर्मास्रव बिना स्थिति व अनुभागबंध किसमें होगा ? इसलिये कषायानुरंजित योगप्रवृत्ति संसारवृद्धि का कारण है।
श्री अकलंकदेव इस प्रश्न का उत्तर अन्य प्रकार से देते हैं
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