Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
३०० ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
कृतस्य मन:पर्ययज्ञेयोऽनन्तभामः अनन्तस्यानन्त भेदत्वात् ऋजुमतिकामणद्रव्याऽनन्तभागाद दूरविप्रकृष्टोऽल्पीयाननन्तभागः विपुलमते व्यम् । वहीं पर प्रदत्त टिप्पण संख्या ३ के अनुसार सर्वावधि का विषयभूत द्रव्य परमाणु नहीं है, किन्तु अनंतपरमाणुओं का स्कन्ध है । इसीप्रकार ऋजुमति का विषय भी स्कन्ध है । " अनन्त के अनंत भेद होते हैं", इस वाक्य से यह स्पष्ट हो जाता है । किन्तु धवलाकार व गोम्मटसारकार के मतानुसार सर्वावधि का विषय परमाणु है, इसीलिए उन्होंने मन:पर्ययज्ञान के विषय को अवधिज्ञान से विषयीकृत द्रव्य का अनन्तवाँ भाग नहीं कहा । धवला की नवम पुस्तक में पृष्ठ संख्या ४८ पर सर्वावधि का विषय परमाणु बताया है और पृष्ठ संख्या ६३ व ६७ पर मन:पर्ययज्ञान का विषय स्कन्ध बताया है । परन्तु उस पुस्तक में कहीं पर भी ऐसा नहीं कहा गया कि मन:पर्ययज्ञान का विषय सर्वावधिज्ञान के विषय का अनन्तवाँ भाग है, क्योंकि वे सर्वावधि का विषय परमाणु स्वीकार करते हैं । राजवार्तिककार 'अनन्त के अनन्त भेद हैं, ऐसा कहकर सर्वावधि का विषय अनन्त परमाणुत्रों का स्कन्धरूप स्वीकार करते हैं । उस स्कन्ध के अनन्तवें भागरूप स्कन्ध ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान का विषय है और उसका भी अनन्तवाँ भाग विपुलमति का विषय है । यह भी स्कन्ध है, परमाणु नहीं है ।
इस विषय को समझने के लिए आचार्य श्रुतसागरजी कृत तत्त्वार्थवृति टीका तथा सुखानुबोध टीका भी द्रष्टव्य हैं। राजवार्तिक १।२४।२ ] की टीका से सम्बद्ध टिप्पण उक्त टीकाद्वय के आधार से ही लिखे गये हैं । - पत्र 23-8-77 / ज. ला. जैन, भीण्डर
ज्ञानमार्गरणा
केवलज्ञान
केवलज्ञान को Supremum Adoptable Set कह सकते हैं
शंका - केवलज्ञान को Supremum adoptable set लिखने में क्या कोई हानि है ?
समाधान - मान दो प्रकार का है । लौकिक मान और अलौकिक मान । लौकिक मान छह प्रकार का है— मान, उन्मान, अवमान, गणिमान, प्रतिमान और तत्प्रतिमान [ त्रिलोकसार गा० ९ ] । लोकोत्तर मान चार प्रकार का है - ( १ ) द्रव्य, (२) क्षेत्र, (३) काल, (४) भाव [ गा० १० ]। लोकोत्तर द्रव्यमान में जघन्यमान परमाणु है और उत्कृष्ट सकल द्रव्य है, क्षेत्र मान में जघन्यमान एक प्रदेश है, उत्कृष्ट मान सर्व आकाश है । कालमान में जघन्यमान एक समय है और उत्कृष्टमान सर्वकाल है । भावमान में जघन्यमान सूक्ष्मनिगोदियालब्ध्यपर्याप्त क का पर्यायनामकज्ञान है और उत्कृष्ट केवलज्ञान है [ गा० ११ १२ ] । द्रव्यमान दो प्रकार का है - ( १ ) संख्या प्रमाण (२) उपमा. प्रमाण । संख्या प्रमाण तीन प्रकार का है - ( १ ) संख्यात, (२) असंख्यात, (३) अनन्त । संख्यात एक ही प्रकार का है किन्तु असंख्यात और अनन्त तीन-तीन प्रकार के हैं - ( १ ) परीता संख्यात, (२) युक्तासंख्यात, (३) असंख्यातासंख्यात, ( १ ) परीतानन्त, (२) युक्तानन्त, (३) अनन्तानन्त [ गा० १२-१३ ] । इसप्रकार संख्या प्रमाण सात प्रकार का है, उनमें से प्रत्येक जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं । इस प्रकार संख्या प्रमाण के (७३) = २१ भेद हो जाते हैं [ गा० १३ - १४ ] । संख्या प्रमाण का जघन्य दो है [ गा० १६ ] और उत्कृष्ट संख्या उत्कृष्ट अनन्तानन्त है जो केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेद प्रमाण हैं । [ गाथा ५१ ] ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org