Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ २५३
द्रव्यशक्ति नित्य होने के कारण पर्यायशक्तियों के साथ रहती है, किन्तु पर्यायों और शक्तियों के कार्यकारी होने में द्रव्यशक्ति की सहकारिता का नियम नहीं है। घट में जलधारणशक्ति पर्यायशक्ति है, किन्तु पुद्गलपरमाणु में जलधारण करने की शक्ति नहीं है। जैसे शब्द में कर्णइंद्रिय का विषय होने की शक्ति है, किन्तु परमाणु में कर्णइंद्रिय का विषय होने की शक्ति नहीं है, क्योकि परमाणु अशब्द है। कहा भी है
सम्वेसि खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू । सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागि मुत्तिभवो ॥७७॥ आदेशमत्तमुत्तो धादु चदुक्कस्स कारणं जो दु।
सो ऐओ परमाणू परिणाम गुणो सयमसद्दो ॥७॥ पंचास्तिकाय ॥ अर्थ- सर्वस्कन्धों का जो अंतिमभाग है उसको परमाणु जानो। वह अविभागी एक शाश्वत मूर्तरूप से उत्पन्न होने वाला है और अशब्द है ।।७७।। जो आदेशमात्र से मूर्त है और पृथ्वी आदि चारधातूओं का कारण है वह परमाणु जानना । जो कि परिणाम गुणवाला है और स्वयं अशब्द है ।।७८॥
इसी की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य लिखते हैं
"यथा च तस्य परिणामवशादव्यक्तो गंधादिगुणोऽस्तीतिप्रतिज्ञायते, न तथा शब्दोऽप्यव्यक्तोऽस्तीति ज्ञातु शक्यते तस्यैक प्रदेशस्यानेकप्रदेशात्मकेन शब्देन सहैकत्वविरोधादिति ।"
अर्थ-जिस प्रकार परिणामवश परमाणु के गंधादि गुण अव्यक्त ज्ञात होते हैं उसी प्रकार शब्द भी अव्यक्त है ऐसा जानना शक्य नहीं है, क्योंकि एकप्रदेशी परमाणु का अनेक प्रदेशात्मकशन्द के साथ एकत्व होने में विरोध है।
परमाणु में गंधादिगुण भले ही अव्यक्त हों, किन्तु होते अवश्य हैं । परन्तु परमाणु में शब्द अव्यक्तरूप से रहता हो ऐसा नहीं है । शब्द तो परमाणु में व्यक्तरूप से या अव्यक्तरूप से बिलकुल होता ही नहीं है। अनन्तपरमाणूओं की स्कन्धरूप पर्याय शब्दवर्गणा है। बाह्यनिमित्त पाकर वे शब्दवर्गणायें शब्दरूप परिणम जाती हैं जो कर्णइंद्रिय का विषय बन जाता है।
परमाणु में, शीत-उष्ण में से एक और स्निग्ध-रूक्ष में से एक, ऐसे दो स्पर्श पाये जाते हैं, किन्तु स्थूलस्कन्धों में, ये दो और नरम-कठोर व हल्का-भारी इन चार में से कोई दो, इस प्रकार चार स्पर्श पाये जाते हैं। नरम, कठोर, हल्का, भारी ये पर्याय-शक्तियां हैं जो परमाणु द्रव्य में नहीं पाई जाती हैं ।
श्री अमृतचन्द्राचार्य ने पंचास्तिकाय गाथा ८१ की टीका में कहा भी है
"सर्वत्रापि परमाणौ रसवर्णगंधस्पर्शाः सहभुवोगुणाः । चतुर्णां शीतस्निग्धशीतरूक्षोष्ण स्निग्धोष्णरूक्षरूपाणां स्पर्शपर्यायद्वन्द्वानामन्यतमेनैकेनेकदा स्पर्शावर्तते ।"
अर्थ-सर्वत्र परमाणुमें रसगंध-वर्ण-स्पर्श सहभावीगुण होते हैं । शीत-स्निग्ध, शीत-रूक्ष उष्ण-स्निग्ध, उष्ण-रूक्ष चार स्पर्शपर्यायों के युगल में से एक समय किसी एक युगलसहित स्पर्श वर्तता है।
पुद्गलद्रव्यों के परस्पर बंध से तथा जीव-पुद्गलों के परस्पर बंध से अनेक पर्याय उत्पन्न हो जाती हैं, जो परमाणुरूप भेद हो जाने पर अथवा जीव-पुद्गल का सबंथा भेद हो जाने पर नष्ट हो जाती हैं। योग भी इसी
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