Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
२५२ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
टीकाकार का कर्तव्य सूत्र की विशद व्याख्या करना है, न कि सूत्र का खंडन करना। षट्खंडागम, दूसरा खंड, क्षद्रकबंध के स्वामित्वअनुयोगद्वार के सूत्र ३३ में श्री भूतबली आचार्य ने योग को क्षायोपशमिकभाव बतलाया है। श्री वीरसेन आचार्य ने उस सूत्र की टीका में यह बतलाया है कि "वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम के अनुसार वीर्य में वृद्धि होती है और उस वीर्य की वृद्धि से प्रात्मप्रदेशपरिस्पन्द बढ़ता है इसलिए योग क्षायोपशमिकभाव कहा गया है । इस कथन में सूत्र से कोई विरोध नहीं आता है। योग क्षायोपशमिकभाव है ऐसा एकान्त नहीं है, क्योंकि तेरहवें गुणस्थान में योग तो है, किन्तु क्षायोपशमिकभाव नहीं है । शरीरनामा नामकर्मोदय तेरहवें गुरणस्थान में भी योग का कारण है और उससे पूर्व के सर्वगुणस्थानों में भी योग का कारण है इसलिए योग प्रौदयिकभाव है, किन्तु योग में हानि-वृद्धि वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती है इसलिए योग उपचार से क्षायोपशमिकभाव है। इस कथन में यह स्पष्टीकरण किया गया कि श्री भूतबली आचार्य ने योग को क्षायोपशमिकभाव विशिष्ट अपेक्षा से बतलाया है. जिससे मूढ़मति योगको एकांत से क्षायोपशमिकभाव न मान लेवें। इसी सत्र की टीका में मनोयोग, वचनयोग और काययोग को क्षायोपशमिक सिद्ध भी किया है । धवल पु०७ पृ० ७७ ।
धवल पु० १० पृ० ४३६ पर योग कौन भाव है, ऐसा पुनः प्रकरण आया है। वहाँ पर भी श्री वीरसेन आचार्य ने लिखा है-"नोआगमभावस्थान ओदयिक आदि के भेद से पाँच प्रकार है। यहाँ पर औदयिकभावस्थान का अधिकार है. क्योंकि योगकी उत्पत्ति तत्प्रायोग्य प्रघातियाकर्म के उदय से होती है। कहीं पर वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से योग की वृद्धि को पाकर चूकि उसे क्षायोपशमिक प्रतिपादित किया गया है, अतएव वह भी घटित होता है।
जो विद्वान योग को औदयिक नहीं मानते उनको सयोगकेवली के योग को क्षायिकभाव मानना पडेगा।
श्री वीरसेन आचार्य ने तो "योग औदयिकभाव है, किन्तु बारहवेंगुणस्थान तक उपचार से क्षायोपशमिक भाव भी है" ऐसा कहा है। इस कथन का अन्य प्राचार्यों के कथन के साथ विरोध भी नहीं आता है। आर्षवाक्यों पर श्रद्धा करने से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है अथवा निर्मल होता है । युक्ति के बल पर आर्षवाक्यों का खण्डन करने से मिथ्यात्व पुष्ट होता है ।
-जं. ग. 28-2-66/XI/ र. ला. जैन, मेरठ १. परमाणु में कर्णेन्द्रिय के विषय होने की शक्ति नहीं है २. योग उपचार से क्षायोपशमिक तथा परमार्थ से प्रौदयिक भाव है ३. सिद्धों में निष्क्रियत्व शक्ति है, योग शक्ति नहीं
आत्मप्रदेशपरिस्पन्द, क्रिया व योग; ये एकार्थवाची हैं शंका-प्रमेयकमलमार्तण्ड में लिखा है-'पर्यायशक्ति समन्विता हि द्रव्यशक्तिः कार्यकारिणी' अर्थात द्रव्यशक्ति पर्यायशक्ति के साथ ही कार्यकारी है। इसी प्रकार क्या ऐसा भी है कि पर्यायशक्ति द्रध्यशक्ति के साथ ही कार्यकारी है? घट में जलधारणशक्ति पर्यायशक्ति है तो विवक्षित घटको मिट्टी में जलधारणशक्ति द्रव्यरूप से है या नहीं ? यह प्रश्न योगके विषय को स्पष्ट समझने के लिये है। योग आत्माको पर्यायशक्ति है या द्रव्यशक्ति है ? क्या द्रव्यशक्ति के बिना पर्यायशक्ति नहीं हो सकती?
समाधान-द्रव्य शक्ति नित्य होती है, क्योंकि द्रव्य का अनादिनिधन स्वभाव है, और पर्यायशक्ति अनित्य होती है, क्योंकि पर्याय सादिपर्यवसानरूप है। "द्रव्यशक्तिनित्यव अनादिनिधनस्वभावत्वादद्रव्यस्य। पर्यायशक्तिस्त्वनित्यव सादिपर्यवसानत्वात्पर्यायाणाम् ।" ( प्रमेयकमलमार्तण्ड २२ ) इससे स्पष्ट है कि पर्यायशक्तियाँ उत्पन्न होती रहती हैं और विनशती रहती हैं किन्तु द्रव्यशक्ति नित्य रहती है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org