Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ २८१
परोक्षज्ञान का भवान्तर में साथ जाना
शंका-आप सरीखे पण्डित मरकर मनुष्य भव पावे तब भी पांच वर्ष तक वह बच्चा (अपण्डित ) 'क' 'ख' 'ग' और बालबोध जैनधर्म भाग एक आदि पढ़ता है तो पूर्व भव में जो ज्ञान प्राप्त किया था, वह कहाँ चला गया?
समाधान-मृत्यु के समय अधिक वेदना होती है जिसके कारण परिणामों में अतिसंक्लेश होता है। इससे ज्ञानावरण आदि कर्मों का तीव्रउदय हो जाने से वह ज्ञान वहीं पर नष्ट हो जाता है। दूसरे, मतिज्ञान व श्रु तज्ञान इन्द्रियों व मन के निमित्त से होते हैं। वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ और मन शिथिल हो जाते हैं अतः ज्ञान भी निर्बल हो जाता है।
जिन्हें मृत्यु के समय वेदना नहीं होती और जो ऋजुगति से उत्पन्न होते हैं उनके प्रायः पूर्वभव का ज्ञान नष्ट नहीं होता । ऐसा देखा भी जाता है कि कोई-कोई बालक बिना पढ़े अनेक भाषाओं के जानकार हो जाते हैं। तीसरे नरक के नीचे जहाँ धर्मोपदेश नहीं है वहाँ भी पूर्वभव के संस्कार के कारण सम्यग्दर्शन हो जाता है।
-जे. ग. 11-1-62/VIII/ ...... संशय अनिश्चयात्मक ज्ञान है शंका-रा. वा अध्याय १ सूत्र १५ वा० १२ में लिखा है कि अवग्रह के पश्चात् संशय होता है, उसके पश्चात् ईहा ज्ञान होता है अतः संशय ईहा नहीं है। अवग्रहज्ञान और ईहाज्ञान के बीच में जो संशय होता है, वह ज्ञान है या दर्शन है?
समाधान-संशय भी ज्ञान है, किन्तु प्रमाण नहीं है, क्योंकि संशय में ज्ञान पदार्थ के दो विशेषों में दोलायमान रहता है । संशय में किसी एक का निश्चय नहीं होता और न किसी एक विशेष के निर्णय की ओर झकाव होता है। अतः संशय ज्ञान अनिश्चयात्मक होने से प्रमाणकोटि में नहीं आता। 'संशय' उत्पन्न हुए बिना विशेष जानने की आकांक्षा उत्पन्न नहीं होती इसलिये अवग्रह ज्ञान और ईहा ज्ञान के बीच में संशय होता है । संशय के पश्चात् विशेष के निर्णय की आकांक्षा होते हुए किसी एक विशेष के निर्णय की ओर झुकाव होता है, वह ईहाज्ञान है।
संशय' दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि संशय अवग्रह अर्थात् अर्थग्रहण के पश्चात होता है और दर्शन अवग्रह से पूर्व होता है।
पताचार-ज. ला. जैन, भीण्डर निगोद जीव में ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों की संख्या शंका-केवलज्ञान में अनन्तअविभागप्रतिच्छेद होते हैं और निगोदिया जीव के जघन्य ज्ञान में भी अनन्तअविभाग प्रतिच्छेद होते हैं । यह तो ज्ञान की शक्ति की अपेक्षा से है। पर्याय की अपेक्षा से निगोदिया का जघन्यज्ञान केवलज्ञान का अनंतवांभाग है। उस ज्ञान के कितने अविभागअतिच्छेद हैं, क्या एक है?
समाधान-निगोदियाजीव के जघन्यज्ञान के अविभागप्रतिच्छेद अनन्त हैं, क्योंकि उस जघन्यज्ञान को जीवराशि से भाग देने पर जो लब्ध आवे उस को उसी जघन्यज्ञान में मिलाने पर पर्यायज्ञान होता है। यदि पर्याय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org