Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
की अपेक्षा निगोदिया के उस जघन्यज्ञान के अनन्त अविभागप्रतिच्छेद न हों तो उसको जीवराशि से भाग देना संभव न होगा। कहा भी है- "एक जीव के भगुरुलघुगुण का उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर अनन्तलोकमात्र वर्गस्थान प्रामे जाकर सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्त का लब्ध्यक्षरज्ञान के अविभागप्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं ।" धवल पु० १३ पृ० ३६३ ।
-जै. ग. 7-8-67/VII/ र. ला. गेन, मेरठ
ज्ञान मार्गरणा
प्रवधिज्ञान
क्षयोपशमहेतुक अवधिज्ञान के भेद शंका-अवधिज्ञान के अनुगामी आदि छहभेद भवप्रत्ययअवधिज्ञान में भी होते हैं या नहीं ? तत्त्वार्थसार से ऐसा मालूम पड़ता है कि ये छह भेद अवधिज्ञानसामान्य के हैं।
समाधान तत्त्वार्थसार श्लोक २६ में अनुगामी आदि छह भेदों का कथन है उसके पश्चात् श्लोक २७ वें के पूर्वार्ध में भवप्रत्ययअवधिज्ञान का और उत्तरार्ध में क्षयोपशमहेतुक अवधिज्ञान का कथन है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि अनुगामी आदि छह भेद भवप्रत्यय और क्षयोपशमहेतुक दोनों अवधिज्ञान के हैं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार ने प्रथम अध्याय सूत्र २१ व २२ से यह स्पष्ट कर दिया है कि अनुगामी आदि छह भेद भवप्रत्ययअवधिज्ञान के नहीं हैं, किन्तु क्षयोपशमहेतुक अवधिज्ञान के हैं। वे सूत्र इस प्रकार हैं-'भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम् ॥२१॥ क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥२२॥' अर्थ-भवप्रत्ययअवधिज्ञान देव और नारकियों के होता है ।। २१ ।। क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान छह प्रकार का है जो शेष अर्थात् मनुष्य और तियंचों के होता है॥ २२॥
सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक टीका में भी अनुगामी आदि छह भेद भवप्रत्ययअवधिज्ञान के नहीं कहे हैं, किन्तु क्षयोपशम-हेतुक अवधिज्ञान के कहे हैं। तत्त्वार्थसार के श्लोक २६ व २७ का अर्थ भी तत्त्वार्थसत्र प्रथम अध्याय सत्र २१ व २२ की दृष्टि से करना चाहिए । अर्थात अनुगामी आदि छः भेद क्षयोपशमहेतुक अवधिज्ञान के हैं।
- -0. ग. 27-2-64/IX/ सरणाराम (१) देव आगामी भव को जानते हैं, पर नारकी नहीं जानते
(२) सर्व भावी पर्याय नियत नहीं शंका-देव-नारकी आगामीभव को जान सकते हैं या नहीं ?
समाधान-नारकी आगामी भव को नहीं जान सकते हैं, क्योंकि नारकियों में अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र मात्र एक योजन प्रमाण है। कहा भी है"पढमाए पुढवीएणेरइयाणमुक्कस्सोहिक्खेतं चत्तारिगाउअपमाणं । तत्थुक्कस्सकालोमुहत्तं समऊणं ।"
धवल पु० १३ पृ० ३२६ ।
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