Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ २५५
अर्थ- समस्त कार्यों के उपरम ( अभाव ) से प्रवृत्त आत्मप्रदेशों की निस्पन्दतास्वरूप निष्क्रियत्वशक्ति है । समयसार आत्मख्याति टोका का परिशिष्ट ।
'शुद्धात्मानुभूतिबलेन कर्मक्षये जाते कर्म नोकर्मपुद्गलानामभावास्सिद्धानां निः क्रियत्वं भवति ।' पंचास्तिकाय गाथा ९८ श्री जयसेनाचार्य कृत टीका ।
अर्थात् - निष्क्रिय निर्विकार शुद्धात्मा की अनुभूति के बल से कर्मों का क्षय हो जाने पर कर्म नोकर्मरूप पुद्गलों का अभाव हो जाने से सिद्धों के निष्क्रियपना होता है ।
जिस प्रकार आत्मा में अमूर्तत्त्व शक्ति है उसी प्रकार आत्मा में निष्क्रियत्व ( अयोग ) शक्ति है । ये स्वाभाविक शक्तियाँ हैं । कर्मबंध के कारण जिस प्रकार अमूर्तत्व स्वाभाविक शक्ति वाला आत्मा मूर्त हो जाता है, इसी प्रकार निष्क्रियत्व स्वाभाविक शक्तिवाला आत्मा सक्रिय ( सयोग ) हो जाता है ।
सिद्धों में क्रियावतीशक्ति या योगशक्ति का उल्लेख किसी भी प्राचीन आचार्य ने नहीं किया है, किन्तु निष्क्रियत्वशक्ति का उल्लेख अवश्य किया है ।
योग औदयिकभाव है । तत्प्रायोग्य कर्मके अभाव में योग का अभाव हो जाता है । अतः सिद्धपर्याय में योग का सद्भाव मानना उचित नहीं है ।
- जै. ग. 29-11-65 / 1X / र. ला. जैन, मेरठ
बादर योग व सूक्ष्म योग
शंका- तेरहवें गुणस्थान के अन्त में बादरयोग और सूक्ष्मयोग का कथन पाया जाता है, बादरयोग और सूक्ष्मयोग से क्या अभिप्राय ?
समाधान - संसारी जीव के कर्मोदय से जो कर्मग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न जाती है । वह योग है । भी है
कहा
पुग्गल विवाइ बेहोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स ।
जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोगो ॥ २१६ ॥ ( गो. जी. )
अर्थ - पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन-वचन-काययुक्त जीव की जो कर्मोंके ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है वह योग है ।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 'योग' प्रदयिक भाव है; क्योंकि वह शरीर नामकर्म के उदय से होता है, क्षायिकभाव नहीं है । योग अर्थात् संसारी जीव की कर्मों को ग्रहण करने की जो शक्ति है वह विकारीशक्ति है, जो शरीर नामकर्मोदय के अभाव में नष्ट हो जाती है, क्योंकि यह अशुद्ध पर्यायशक्ति है ।
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तेरहवें गुणस्थान के अन्त में इस शक्तिके क्षीण होने पर अपूर्वस्पर्द्धक हुए जिससे बादर काययोग के द्वारा बादरमनोयोग, बादरवचनयोग, बादरउच्छ्वास का प्रभाव होकर बादरकाययोग का भी अभाव हो जाता है । श्रपूर्वस्पर्द्धक के पश्चात् पुनः शक्ति के क्षीण होने पर कृष्टियाँ होती हैं, जिससे सूक्ष्मकाययोग के द्वारा सूक्ष्ममनोयोग
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