Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[१२५७ पुणो सम्वकाला वग्गिज्जमाणा वग्गिज्जमाणा अणंतलोगमेत्तवग्गणढाणाणि उवरि गंतूण सव्वागाससेटिं पावदि । पुणो सव्वागाससेढी वग्गिज्जमाणा वग्गिज्जमाणा अणंतलोगमेत्तवग्गणदाणाणि उवरि गतूण धम्मत्थिय-अधम्मत्यियवस्वाणम-गुरुअलहुअगुणं पावदि। पुणो धम्मस्थिय-अधम्मस्थिय-अगुरुलहअगुणो वग्गिज्जमाणो वग्गिज्जमाणो अणंतलोमेत्तवग्गणट्ठाणाणि उवरि गंतूण एगजीवस्स अगुरुअलहुअगुणं पाववि । पुणो एगजीवस्स अगुरुअलहुअगुणो वग्गिज्जमाणो वग्गिज्जमाणो अणंतलोगमेत्तवग्गणदाणाणि उवरि गंतण सहमणिगोदअपज्जत्तयस्स लद्धिक्खरं पावदि त्ति परियम्मे भणिवं ।" ( धवल पु० १३ पृ० २६२-२६३ )
अर्थ-सर्व जीव राशि का उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर अनन्तलोकप्रमाण वर्गस्थान आगे जाकर सर्व पुद्गलद्रव्य प्राप्त होता है । पुनः सर्व पुद्गलद्रव्य का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सर्वकाल ( व्यवहार काल के समय ) प्राप्त होते हैं। पुनः सर्वकाल का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोक प्रमाण वर्गस्थान आगे जाकर सर्व प्राकाशश्रेणी प्राप्त होती है। पून: सर्व आकाशश्रेणी का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य का अगुरुलघुगुण प्राप्त होता है। पुनः धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के अगुरुलघुगुण का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर एक जीव का अगुरुलघुगुण प्राप्त होता है। पुनः एकजीव के अगुरुलघुगुण का उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्तलोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सूक्ष्मनिगोद लब्ध्यपर्याप्त का लब्ध्यक्षरज्ञान प्राप्त होता है अर्थात् लब्ध्यक्षरज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों की संख्या प्राप्त होती है। ऐसा परिकर्म में कहा है।
इस आर्ष ग्रन्थ से जाना जाता है कि लब्ध्यक्षरज्ञान के अनंतानंत अविभागप्रतिच्छेद हैं।
-जं. ग. 29-8-66/VII/ र. ला. जैन, मेरठ
निरावरण पर्याय श्रुतज्ञान का स्वरूप शंका-पर्यायभ तज्ञान क्या है जिसका कभी आवरण नहीं होता है जबकि केवलज्ञान का आवरण हो जाता है ?
समाधान- पर्यायश्रुतज्ञान का लक्षण गोम्मटसार जीवकाण्ड में इस प्रकार कहा है
णवरि विसेसं जाणे सुहमजहण्णं तु पज्जयं गाणं । पज्जायावरणं पुण तदणंतरणाणभेदम्हि ॥ ३१९ ॥ सुहमणिगोद अपज्जत्तयस्स जास्स पढमसमयम्हि । हववि हु सव्वजहण्णं णिच्चुग्घाडं गिरावरणम् ॥३२०॥ सुहमणिगोदअपज्जत्तगेसु सगसंभवेसु भमिऊण । चरिमापुण्णतिवक्काणादिमवक्कट्ठियेव हवे ॥३२१॥ सुहमणिगोद अपज्जत्तयस्स जावस्स पढमसमयम्हि ।
फासिदियमदिपुव्वं सुदणाणं लद्धिअक्खरयं ॥३२२॥ (गो. जी.) अर्थ-सूक्ष्मनिगोदियालब्ध्यपर्याप्तक के जो सबसे जघन्यज्ञान होता है उसको पर्यायज्ञान कहते हैं । पर्यायज्ञानावरणकर्मोदय का फल पर्यायज्ञान को आवरण करनेरूप नहीं होता है, किन्तु पर्यायसमास-ज्ञान को आवरण
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