Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार:
केवलज्ञान और केवलदर्शन से अतिरिक्त मतिज्ञान आदि पाये जाते हैं, सो कहना ठीक नहीं, क्योंकि केवलज्ञान, केवलदर्शन के उन अवयवों को मतिज्ञान आदि कहा गया है।
-जं. ग. 6-1-72/VII/........ इन्द्रिय व मन द्वारा विषय-प्रवृत्ति मतिज्ञान का धर्म है शंका-'पाँचों इन्द्रियों तथा मन अपने-अपने योग्य विषय को ग्रहण करते हैं' यह किसका धर्म है ? यदि आत्मा का धर्म है तो सिद्धों में भी पाया जाना चाहिये था, यदि पुद्गल का धर्म है तो मृत कलेवर में भी पाया जाना चाहिये था। यदि जीव और पुद्गल दोनों के संयोग का धर्म है, तो सयोगकेवली में भी पाया जाना चाहिये था।
समाधान-यह क्षायोपशमिक मतिज्ञान का धर्म है । सर्वार्थसिद्धि में कहा भी है
"इन्द्रियमनसा च यथास्वमर्थो मन्यते अनया मनुते मननमान वा मतिः ।" [ सूत्र १/९ टीका ] इन्द्रिय और मन के द्वारा यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा ममन ( ग्रहण ) किये जाते हैं, जो मनन करता है या मनन मात्र मतिज्ञान है।
"तदिन्द्रियानिन्द्रिय निमित्तम् ॥ १/१४ ॥ [ मोक्षशास्त्र ] वह मतिज्ञान इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता है । "स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि ॥ २/१९॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः ॥२/२०॥"
स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये इन्द्रियाँ हैं । स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द ये क्रम से उन इन्द्रियों के विषय हैं।
सिद्धों में क्षायिकज्ञान है । सयोगकेवली के भी क्षायिकज्ञान है, क्षायोपमिक मतिज्ञान नहीं है अतः उनके इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ग्रहण नहीं पाया जाता है। मृतकशरीर अचेतन है, उसमें भी क्षायोपशमिक मतिज्ञान नहीं पाया जाता, अतः इन्द्रियों के द्वारा विषय ग्रहण कैसे संभव हो सकता है।
-जें. ग. 8-1-76/VI/ रो. ला. मित्तल चक्षु के अतिरिक्त अन्य चार इन्द्रियों से अप्राप्त अर्थ भी जाना जाता है शंका-जिसप्रकार मन और चक्षु अप्राप्यकारी हैं क्या अन्य इन्द्रियाँ भी उसी प्रकार अप्राप्यकारी हैं ?
समाधान-चक्षु और मन तो अप्राप्यकारी हैं, प्राध्यकारी नहीं हैं, क्योंकि ये दूरवर्ती पदार्थ को जानते हैं, भिड़कर नहीं जानते हैं जैसे-चक्षु नेत्र में डाले गये अंजन को नहीं जानतीं। शेष इन्द्रियाँ स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र ये चारों प्राप्यकारी भी हैं अप्राप्यकारी भी हैं । कहा भी है
पुढे सुरणेइ सद्द अप्पुटुं' चेय पस्सदे रूबं । गधं रसं च फासं बद्ध पुटुं च जाणादि ॥
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