Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ २५७
प्रास्रव संज्ञा को प्राप्त योग के कार्य शंका-पुदगल संचय होने पर उनके आलम्बन से आत्मप्रदेशों का जो संकोच-विकोच होता है उसे योग कहते हैं। ऐसा माने तो योग आसव है ऐसा कैसे? क्योंकि पुद्गल संचय और उनका शरीर रूप परिणमन तो शरीरनामकर्म द्वारा हो जायगा। उस आलम्बन से आत्मप्रदेशों में जो परिस्पन्द हुआ, वह योग तो उसका फिर कार्य क्या हुआ?
समाधान-गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २१६ में "जीवस्स जाह सत्ती कम्मागमकारणं जोगो"। अर्थात् जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत जो शक्ति है वह योग है, ऐसा कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि कर्म व नोकर्मरूप पुद्गलप्रदेशों का पागमन योग के द्वारा होता है। अत: पुद्गल संचय भी योग के द्वारा होता है। उत्कृष्ट योग के द्वारा अधिक पुद्गलप्रदेशों का संचय होता है और जघन्य योग के द्वारा अन्य पुद्गलप्रदेशों का संचय होता है । धवल पु० १० पृ० ४३२ ।
जीव प्रदेशों में जो परिस्पन्द ( संकोच विकोच ) होता है उसका कारण भी योग ही है । "जीवपदेस परिपफन्बहेदू चेव जोगो।" धवल पु० १२ पृ० ३६५ । योग के द्वारा जो नोकर्मवर्गरणा आती हैं, उनकी शरीररूप रचना शरीरनामकर्म के उदय से होती है।
कर्मवर्गणा व नोकर्मवर्गणा का आगमन तथा जीवप्रदेशों का परिस्पन्द-ये योग के कार्य हैं। कार्य में कारण का उपचार करके योग को आस्रव कहा गया है ?
"यथासरस्सलिलावाहिद्वारं तदाऽऽस्वकारणत्वात आसव इत्याख्याते तथा योगप्रणालिकया आत्मनः कर्म आसवतीति योग आसव व्यपदेशमर्हति ।" सर्वार्थसिद्धि ६/२ ।
अर्थ-जिस प्रकार तालाब में जल आने का दरवाजा जल के आने का कारण होने से प्रास्रव कहलाता है, उसी प्रकार आत्मा के साथ बँधने के लिये कर्म योगरूपी नाली के द्वारा आते हैं, इसलिये योग आस्रव संज्ञा को प्राप्त होता है।
-जे. ग. 30-11-72/VII/ र. ला. जैन, मेरठ योग के इच्छापूर्वक होने का नियम नहीं है शंका-बारहवें गुणस्थान तक योग क्रिया क्या इच्छा पूर्वक होती है ? इच्छा तो मोह की पर्याय है। बारहवें गुणस्थान में मोह रहा नहीं सो इच्छा पूर्वक योग की क्रिया कैसे ? समाधान-शरीरनाम कर्मोदय से योग होता है।
पुग्गलविवाइदेहोदयेण मणवयण कायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागम कारणं जोगो ॥२१६॥ गो. जी.
पुदगलविपाकी शरीरनामकर्मके उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव के जो कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है वह योग है।
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