Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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क्योंकि यदि जीवप्रदेशों में परिस्पन्द उत्पन्न होता है है । इस कारण स्थित ( परिस्पन्द रहित, अचल ) चाहिये ।" धवल १२ / ३७ ।
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
तो वह योग से ही उत्पन्न होता है, ऐसा नियम पाया जाता जीवप्रदेशों में भी योग के होने से कर्मबन्ध को स्वीकार करना
परिस्पन्द यद्यपि आत्मा के समस्तप्रदेशों में नहीं होता, क्योंकि मध्य के आठप्रदेश हमेशा अचल रहते हैं, तथापि योग समस्त आत्मप्रदेशों में होता है। इससे सिद्ध है कि मन, वचन, काय की क्रिया अथवा श्रात्मप्रदेश परिस्पन्द कार्य है और योग कारण है ।
योग औदयिकभाव है, क्योंकि उपर्युक्त "दुग्गलविवाह वेहोबयेण" और 'कर्मजनितस्य' शब्दों द्वारा योग की उत्पत्ति कर्मोदय के कारण कही गई है ।
" जोगमग्गणा वि ओदइया, नामकम्मस्स उदीरणोदयजणिवत्तादो ।" धवल ६ पृ० ३१६ ।
अर्थ - योगमार्गणा भी औदयिक है, क्योंकि वह नामकर्म की उदीरणा व उदय से उत्पन्न होती है ।
“एत्थ ओढइयभावद्वारोण अहियारो, अधाविकम्माणमुदएण तथ्याओग्गेण जोगुप्पत्तीवो । जोगो खओवओति के विभति । तं कथं घडदे ? वीरियंतराइयक्खओवसमेण कत्थ वि जोगस्स वडिमुवलक्खिय खभवसमियत्तदुपायणादो घडदे ।" धवल पु० १० पृ० ४३६ ।
अर्थ-योग की उत्पत्ति तत्प्रायोग्य अघातियाकर्मोदय से होती है इसलिये यहाँ औदयिकभावस्थान है । कितने ही आचार्यों ने योग को क्षायोपशमिक भाव कहा है, वह वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से योग की वृद्धि होने की अपेक्षा से कहा है ।
" सरीरणामकम्मोदयजगिदजोगो". ........ धवल ७ १० १०५ ।
अर्थ - 'योग' शरीर नाम कर्म जनित है ।
"ओबइओ जोगो, सरीरणामकम्मोदय विणासानंतरं जोगविणासुवलंभा ।" धवल ५।२२५ ।
अर्थ – 'योग' यह औदयिक भाव है, क्योंकि शरीर नामकर्म के उदय का विनाश होने के पश्चात् ही योग का विनाश पाया जाता है ।
"पुल विपाकिनः शरीरनामकर्मण उदयापादिते कायवाङ मनोवर्गणान्यतमालम्बने सति वीर्यान्तरायमत्यक्ष राद्यावरण क्षयोपशमापादिताभ्यंतरवाग्लब्धिसान्निध्ये वाक्परिणामाभिमुख्यस्यात्मनः प्रवेशपरिस्पन्दो वाग्योगः ।” रा० वा० ६-१-१० ।
अर्थ — पुद्गलविपाकी शरीरनामा नामकर्म के उदयकरि किया काय, वचन, मन सम्बन्धी वर्गणानि में वचनवर्गणा का आलम्बन होते संते वीर्यान्तराय मति तथा श्रुत अक्षरादि ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम करि प्राप्त भई जो अभ्यन्तर वचन को लब्धि कहिये बोलने की शक्ति ताकी निकटता होते वचन परिणाम के सन्मुख भया जो श्रात्मा ताके प्रदेशनि का चलना सो वचनयोग है ।
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