Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ २४६
"यदि क्षयोपशमलब्धिरभ्यन्तर हेतुः, क्षये कथम् । क्षयेपि हि सयोगकेवलिनः त्रिविधो योग इष्यते । अथ क्षयनिमित्तोऽपि योगः कल्प्यते, अयोगकेवलिनां सिद्धानां च योगः प्राप्नोति ? नैष दोषः, क्रिया परिणामिन आत्मनस्त्रिविधवालम्बनापेक्षः प्रदेशपरिस्पदः सयोगकेवलिनो योगविधिविधीयते, तदालम्बनाभावात् उत्तरेषां योगविधिर्नास्ति ।" रा० वा० ६।१।१० ।
आज से ७० वर्ष पूर्व श्री पं० पन्नालालजी न्यायदिवाकर कृत अर्थ इस प्रकार है
प्रश्न - जो वीर्यान्तराय र ज्ञानावरणी कर्म के क्षयोपशम जनित लब्धिको योग की प्रवृत्ति में अभ्यन्तर कारण का, सो क्षय अवस्था में कैसे संभवे ? जातै वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण का सर्वथा क्षय होते भी सयोगकेवल भट्टारक के तीन प्रकार योग आगम में कया है । बहुरि क्षय निमित्त कभी योग कल्पिए तो प्रयोगकेवली भगवान के अर सिद्धों के योग का सद्भाव प्राप्त होय । तातें पूर्वोक्त योग का लक्षण में अव्याप्ति श्रतिव्याप्ति नामा दोष प्राप्त होय है ?
उदय करि मन, वचन, काय
मन,
उत्तर- - यहाँ यह दोष नहीं है, जातें पुद्गलविपाकी शरीरनामा नामकर्म के करि विशिष्ट क्रिया परिणामी आत्मा के ही योग का विधान है। ऐसे आत्मा के वर्गणानि के अवलम्बन की अपेक्षा प्रदेशपरिस्पन्दात्मक सयोगकेवली के योगविधि कही है । तथा सिद्धनि के तिन वर्गणानि के अवलम्बन का अभाव है जातें तिन के योगविधि का सद्भाव नाहीं ऐसा जानना ।
वचन, काय सम्बन्धी यहाँ अयोगकेवली के
इसप्रकार श्री अकलंकदेव ने भी योग को शरीरनामकर्मोदय जनित ही माना है । योग क्षायिकभाव नहीं होता है। किसी भी श्राचार्य ने योग को क्षायिकभाव नहीं कहा है ।
"जदि जोगो वीरियंत राइयखओवसमजणिदो तो सजोगिन्हि जोगाभावो पसज्जदे ? ण, उवयारेण खओवसमियं भावं पत्तस्स ओवइयस्स जोगस्स तत्थाभावविरोहादो ।" धवल ७ पृ० ७६ ।
अर्थ – यदि योग वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है तो सयोगिकेवली में योग के प्रभाव का प्रसंग आता है ? नहीं आता, क्योंकि योग में क्षायोपशमिकभाव तो उपचार से माना गया है। असल में तो योग औदकिभाव है और औदयिकयोग का सयोगिकेवली में अभाव मानने में विरोध आता है ।
"योगसम्बन्धाभावः आत्मनः क्षायिकः ।" रा० वा० ९-७-११ ।
अर्थात- आत्मा के योग के सम्बन्ध का प्रभाव सो क्षायिकभाव है ।
"अजोगिकेवलिम्मि णट्ठासेसजोगम्मि जीवपदेसाणं संकोच विकोचाभावेण अवट्ठाणुवलंभावो ।" धवल १२ पृ० ३६७ ॥
अर्थ - अयोगकेवली जिनमें समस्त योगों के नष्ट हो जाने से जीव- प्रदेशों का संकोच व विस्तार नहीं होता है, श्रतएव उनके श्रात्मप्रदेश अवस्थित पाये जाते हैं ।
इसप्रकार चौदहवें गुरणस्थान में समस्त योग नष्ट हो जाता है, अतः प्रयोगकेवली और सिद्ध भगवान में योग शक्तिरूप से भी विद्यमान नहीं है । भूतनैगमनय की अपेक्षा से उनमें योग का उपचार हो सकता है ।
- जै. ग. 7 - 11 - 66 / VII / ता. घ.
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