Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
सनाली से बाहर बादर निगोदों का प्राधार शंका-सनाली से बाहर निगोदिया जीव किस के आधार रहते हैं ? यहाँ आकाश में भी वे किसके आधार रहते हैं ?
समाधान-सनाली से बाहर और त्रसनाली के अन्दर बादरनिगोद जीव पृथ्वियों के आश्रय से रहते हैं (धवल पु० ४ पृ० १००; धवल पु० ७ पृ० ३३९ )। आठों पृथ्वियाँ उत्तर-दक्षिण सात राजू हैं और दूसरी तीसरी चौथी पांचवीं छठी और सातवीं पृथ्वियाँ पूर्व-पश्चिम भी असनाली से बाहर हैं, अतः सनाली के बाहर पाठों पृथ्वियों के आश्रय से बादर निगोद जीव रहते हैं।
-जं. ग. 26-9-63/IX/र. ला. जैन, मेरठ साधारणवनस्पतिकाय अर्थात् निगोद में प्रवस्थान का उत्कृष्ट काल
[ इतर निगोद की अपेक्षा ]
शंका-जो मनुष्यादि मरकर निगोद में उत्पन्न होता है वह अधिक से अधिक कितने काल तक निगोद में रह सकता है ?
समाधान- निगोद में एक भव की उत्कृष्ट प्रायु यद्यपि अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं है तथापि एक जीव इतर निगोद में निरंतर अढ़ाई पुद्गल परिवर्तन तक परिभ्रमण कर सकता है। कहा भी है
"णिगोद जीवा केवचिरं कालावो हति ॥८६॥ जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥७॥ उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गलपरियट्ट ॥८॥ अणिगोदजीवस्स णिगोदेसु उप्पण्णस्स उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गलपरियहितो उवरि परिभवणाभावादो। वादरणिगोदपज्जत्ताण पुण उक्कस्सकालो अंतोमुहुत्तं ।" धवल पु० ७ ।
अर्थ-निगोद जीव कितने काल तक रहते हैं ? जघन्य से क्षुद्रभवग्रहण काल तक निगोद जीव रहता है और उत्कृष्ट से अढ़ाई पुद्गल परिवर्तन प्रमाण काल तक निगोद जीव रहता है। क्योंकि, निगोद जीव में उत्पन्न
निगोद से भिन्न जीव' का उत्कर्ष से अढ़ाई पुद्गल परिवर्तनों से ऊपर परिभ्रमण है ही नहीं। बादर निगोद पर्याप्तक की उत्कृष्ट आयु अंतर्मुहूर्त ही है।'
-जं. ग. 26-11-70/VII/शा. स., रेवाड़ी पंचेन्द्रियों का उपपाद क्षेत्र
शंका-धवल पस्तक ७१० ३७७ पर पंचेन्द्रिय लियच का उत्पाद क्षेत्र सर्वलोक बतलाया। महाबंध पु० ११० १९९ पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मार्गणा में पंचेन्द्रिय जाति बंधक का स्पर्शन १२/१४ राजू बतलाया है। महाबंध में सर्वलोक क्यों नहीं बतलाया? सूक्ष्म जीव पंचेन्द्रिय तिर्यच में आ सकते हैं साथ ही पंचेन्द्रिय जाति का बंध है तो सर्वलोक क्यों नहीं।
१. मोक्षमार्ग प्रकाशक । धर्मपुरा से प्रकाशित | पृ० ४६-४७ भी दृष्टव्य है।
-सम्पादक
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