Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
"अत्यि जीवा पत्तेय-साधारण सरीरा ॥११९॥ एक्कस्सेव जीवस्स जं सरोरं तं पत्तेयसरीरं। तं सरोरं जीवाणं अस्थि ते पत्तयसरीराणाम । बहूणं जीवाणं जमेगं सरीरं तं साहारणसरीरं णाम । तत्य जे वसंति जीवा ते साहारणसरीरा।" धवल पु० १४ पृ० २२५ ।
अर्थ-जीव प्रत्येक शरीर वाले और साधारण शरीर वाले होते हैं ॥११६। एक ही जीव का जो शरीर है उसकी प्रत्येक शरीर संज्ञा है। वह शरीर जिन जीवों के है वे प्रत्येक-शरीर जीव कहलाते हैं। बहत जीवों का जो एक शरीर है वह साधारण शरीर है, उसमें जो जीव निवास करते हैं वे साधारण शरीर जीव हैं
अनन्त जीव और एक नोकर्म शरीर इनके परस्पर बंधन से जो एक निगोदिया तिर्यञ्च पर्याय बनी है वह साधारण शरीर जीव पर्याय है। अनन्त जीवों का एक शरीर से बन्ध होने पर यह पर्याय उत्पन्न होती है। निगोदिया जीवों का परस्पर बंध हुए बिना उन सबका एक ही शरीर से बन्ध होना सम्भव नहीं है। अतः धवल पु० १३ में निगोद जीव के परस्पर बंध को जीव बंध कहा गया है।
अनन्त निगोदिया जीवों का एक प्रोदारिक शरीर होते हुए भी उन सबका कार्मण शरीर भिन्न-भिन्न है। किन्तु साधारण शरीर नामकर्मोदय के कारण उनके आहार व उच्छ्वास-निःस्वास भी साधारण है।
१. जब एक निगोद जीव को दुःख होता है उस समय उस साधारण शरीर में रहने वाले सभी निगोदिया जीवों को दुःख हो ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि कार्मण शरीर भिन्न-भिन्न होने के कारण उनके कर्मोदय एकसा होने का नियम नहीं है।
२. एक शरीर में रहने वाले सभी निगोदिया जीवों के सुख-दुःख का वेदन एक प्रकार का भी हो सकता है और भिन्न-भिन्न प्रकार का भी हो सकता है ।
३. आयु कर्म, साधारण शरीर और साधारण शरीर से सम्बन्धित कर्मों के अतिरिक्त अन्य कर्मोदय के समान होने का कोई नियम नहीं है।
४. सभी निगोदिया जीवों के आयु कर्म एक जैसे परिणामों से होने का भी नियम नहीं है, क्योंकि असंख्यात लोक परिणामों से एक प्रकार की आयु का बंध हो सकता है ।
.. ५. सभी निगोदिया जीवों के एक समय में ज्ञानादि गुणों की एकसी पर्याय होने का भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि कार्मण शरीर भिन्न-भिन्न हैं।
साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणिदं ॥१२२॥ एयस्स अणुग्गहणं बहूण साहारणाणमेयस्स । एयस्स जं बहूणं समासदो तं पि होदि एयस्स ॥१२३॥ समगं वक्ताणं समगं तेसि सरीरणिप्पत्ती । समगं च अणुग्गहणं समगं उस्सासणिस्सासो ॥१२४॥ जत्थेउ भरइ जीवो तत्थ दु मरणं भवे अणंताणं । वक्कमइ जत्थ एक्कोवक्कमणं तत्थणंताणं ॥१२॥
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