Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ २४५
arresकाइया दुविहा, पत्तेय सरीरा साधारण सरीरा । पत्तय सरीरा दुविहा, पज्जता अपज्जत्ता । साधारणसरीरा दुविहा, बावरा सुहुमा । बादर बुविहा, पज्जत्ता अपज्जता । सुहुमा दुविहा, पज्जता पज्जत्ता चेदि ॥४१॥ सतपरूवणानुयोगद्दार ।
arch विकाइयाणिगोद जीवा बादरा सुहुमा पज्जता अपज्जता दव्वपमागेण केवडिया ? ॥७९॥ अनंता ||८०|| छक्खडागमे खुद्द बंधो दव्वपमाणायुगम ।
उपर्युक्त सूत्रों में साधारण शरीर अर्थात् निगोद जीव दो प्रकार के बतलाये गये हैं-- बादर और सूक्ष्म । बादर निगोद जीव तथा सूक्ष्म निगोद जीव पर्याप्त और अपर्याप्त (लब्ध्यपर्याप्त ) के भेद से दो दो प्रकार के होते हैं ।
"पर्याप्तनाम कर्मोदयवन्तः पर्याप्ताः । तदुदयवतामनिष्यन्नशरीराणां कथं पर्याप्तव्यपदेशो घटत इति चेन्न, नियमेन शरीरनिष्पादकानां भाविनि भूतवदुपचारतस्तदविरोधात् पर्याप्तनाम कर्मोदय सहचाराद्वा । ( धवल पु० १ पृ० २५३-५४ ) अपर्याप्त नाम कर्मोदय जनितशक्त्याविर्भावितवृत्तयः अपर्याप्ताः । ( धवल पु० १ पृ० २६७ ) जस्स कम्मस्स उदएण जीवो पज्जतीओ समागेदु ण सक्कदि तस्स कम्मस्स अपज्जत्तणाम सण्णा । धवल पु० ६ पृ० ६२ ।” जो पर्याप्त नाम कर्म के उदय से युक्त है वह पर्याप्त है, जिसका शरीर अभी निष्पन्न नहीं हुआ है किन्तु पर्याप्त नाम कर्मोदय से युक्त है, वह भी पर्याप्त है, क्योंकि नियम से शरीर को निष्पन्न करेगा, अतः पर्याप्त संज्ञा देने में कोई विरोध नहीं आता है । यहाँ पर होने वाले कार्य में यह कार्य हो गया इस प्रकार का उपचार किया गया है । अपर्याप्त नाम कर्मोदय से उत्पन्न हुई शक्ति से जिस जीव की शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने से पूर्व मरणरूप अवस्था विशेष उत्पन्न हो जाती है वह अपर्याप्त है । जिस कर्म के उदय से जीव पर्याप्तियों को समाप्त करने के लिये समर्थ नहीं होता वह अपर्याप्त नामकर्म है। जिन जीवों के अपर्याप्त नाम कर्म का उदय होता है वे लब्ध्यपर्याप्त जीव कहलाते हैं ।
(२) लब्ध्यपर्याप्त निगोद जीव के चार पर्याप्तियाँ होती हैं । १. आहार पर्याप्ति, २. शरीर पर्याप्ति, ३. इन्द्रिय पर्याप्ति, ४. श्रानपान पर्याप्ति, किन्तु इन चारों पर्याप्तियों में से कोई भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है; अपर्याप्त रूप से उन पर्याप्तियों का सद्भाव रहता है । कहा भी है
"अपर्याप्त रूपेण तत्र तासां सत्वात् । किमपर्याप्तरूपमिति चेन्न, पर्याप्तीनामर्धनिष्पन्नावस्था अपर्याप्तिः । ( धवल पु० १ पृ० २५७ ) "एतासामेवानिष्पत्तिरपर्याप्तिः ।" धबल पु० १ पृ० ३१२ ।
लब्ध्यपर्याप्त निगोद जीवों के भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति नहीं होती, क्योंकि उनके रसना इंद्रिय व मन का अभाव है ।
"चत्तारि पज्जत्तीओ बसारि अपज्जतीओ ॥ ७४ ॥ | आहारशरीरेन्द्रियानापानपर्याप्तयः । एइंदियाणं ।"
चार पर्याप्तियाँ और चार अपर्याप्तियाँ होती हैं । आहार पर्याप्ति; शरीर पर्याप्ति, इंद्रिय पर्याप्ति और आनपान पर्याप्ति । ये चार पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय जीवों के होती हैं ।
(३) लब्ध्यपर्याप्त निगोद जीवों के श्वासोच्छ्वास प्राण नहीं होता है, क्योंकि प्रानपान पर्याप्ति पूर्ण निष्पन्न नहीं होती है । प्राण और पर्याप्ति में कार्यकारण भाव है । अतः आनपान पर्याप्ति की निष्पत्ति रूप कारण के अभाव में कार्यरूप श्वासोच्छ्वास का सद्भाव संभव नहीं है। कहा भी है
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