Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार :
मनुष्यों में निरन्तर रहने का यह उत्कृष्ट काल असपर्याय के दो हजार सागर के उत्कृष्ट काल में मात्र एक बार ही प्राप्त होगा ऐसा नियम नहीं है। इस ४७ पूर्वकोटि अधिक तीन पत्योपम काल में मात्र ४८ ही भव प्राप्त होंगे ऐसा भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि अधिक भव भी संभव हैं।
घटखंडागम के उपर्युक्त सूत्रों में और धवल टीका में मात्र उत्कृष्टकाल का निरूपण है भवों की संख्या का कश्चन नहीं है। भबों की संख्या कपोलकल्पित है जिसका मेल आर्षग्रन्थ से नहीं है। लब्ध्यपर्याप्त के अन्तम'हर्त काल में मनुष्यअपर्याप्त के २४ भव संभव हैं।
आशा है कि विद्वत्मण्डल इस पर पार्षग्रन्थों के आधार से विचार करेगा।
-जं. ग. 20-11-69/VII/अ. स. सत्चिदा.
लमध्यपर्याप्तक मनुष्य निगोदिया नहीं हैं
शंका-मोक्षमार्ग-प्रकाशक में लिखा है-"मनुष्यगति विवं असंख्याते जीव तो लमध्यपर्याप्तक हैं, वे सम्मर्छन हैं, उनकी आयु श्वास के अठारहवें भाग है।" क्या ये जीव निगोदिया हैं ? लब्ध्यपर्याप्तक का क्या अर्थ है ?
समाधान-लन्ध्यपर्याप्तकमनुष्य निगोदिया नहीं होते हैं, किन्तु संज्ञीपंचेन्द्रिय अपर्याप्त हैं । लब्ध्यपर्याप्तक का अर्थ है, जिन की छह पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं। अपर्याप्त अवस्था में ही मरग हो जाता है। इनकी प्राय इवांस के अठारहवें भाग अर्थात् एक सैकिंड के चौबीसवें भाग होती है।
-जं. ग./12-3-70/VII/ जि. प्र.
सम्मूर्छन मनुष्य आँखों से नहीं दिखते
शंका-'श्रावकधर्मसंग्रह' में लिखा है-'स्त्री की योनि आदि स्थानों में सम्मूर्छन सैनी पंचेन्द्रिय जीव सदा उत्पन्न होते हैं । जब सम्मूर्च्छनमनुष्य सैनी पंचेन्द्रिय हो गये तो अपर्याप्त नहीं रहे ? यदि अपर्याप्त भी हों तो वे आँखों से दिखाई देने चाहिये जैसे बिच्छू वगैरह दिखाई देते हैं मगर ऐसा क्यों नहीं है ?
समाधान-मनुष्य सैनी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। वे दो प्रकार के होते हैं (१) गर्भज (२) सम्मुर्छन । जो गर्भज मनुष्य होते हैं वे पर्याप्तक ही होते हैं । गर्भज कर्मभूमियाँ मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व की होती है और भोगभूमियाँ की उत्कृष्ट आयु तीनपल्व की होती है।
___ सम्मूच्र्छनमनुष्य आर्यखण्ड की स्त्रियों के योनि आदि स्थानों में उत्पन्न होते हैं। ये लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं, इनकी आयु एक सैकिण्ड के चौबीसवें भागमात्र होती है, इनकी अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवेंभाग बराबर होती है । अतः ये आँख से दिखाई नहीं देते हैं।
-जे. ग. 5-3-70/IX/जि. प्र.
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