Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
२२८ ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान-यह ठीक है कि कुछ बादर जीवों से सूक्ष्म जीवों की अवगाहना असंख्यातगुणी है जैसे पंचेन्द्रिय ( बादर ) अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना से सूक्ष्मनिगोद निर्वृत्तिपर्याप्तक जीव की अवगाहना असंख्यातगणी है। [षखंडागम वेदना खंडवेदन क्षेत्र विधानअल्पबहुत्व सूत्र ४६-४७ ]। इसलिये अवगाहना की हीनताअधिकता के कारण सूक्ष्म व बादर भेद नहीं हैं, किन्तु सूक्ष्म और बादर नाम कर्मोदय के कारण सूक्ष्म व बादर भेद हैं । कहा भी है
बादर-सुहुमुदयेण य बादरसुहुमा हवंति तद्दहा । घादसरीरं मूलं अघाद-देहं हवे सुहुमं ॥१८३॥ गो० जी०
अर्थात्-बादर नाम कर्म और सूक्ष्म नाम कर्म के उदय से शरीर बादर और सूक्ष्म होता है। जो शरीर घात को प्राप्त हो जावे वह बादर शरीर और जो घात को प्राप्त न हो वह सूक्ष्म शरीर है।
"परमूर्तव्यैरप्रतिहन्यमानशरीर-निर्बतकं सूक्ष्म कर्म । तद्विपरीतशरीरनिर्वर्तकं बादर कर्मेतिस्थितम् ।"
अर्थ-इस कथन से यह बात सिद्ध हुई कि जिसका मूर्त पदार्थों से प्रतिघात नहीं होता है ऐसे शरीर को निर्माण करने वाला सूक्ष्म नाम कर्म है, और उससे विपरीत अर्थात् मूर्त पदार्यों से प्रतिघात को प्राप्त होने वाले शरीर को निर्माण करने वाला बादर नाम कर्म है धबल पु० १ पृ० २५३ ।
अतः बादर शरीर अवगाहन में हीन होता हुआ भी मूर्त पदार्थों से प्रतिघात को प्राप्त होता है और सूक्ष्म शरीर अवगाहन में अधिक होते हुए भी दूसरे मूर्त पदार्थों के द्वारा प्रतिघात को प्राप्त नहीं होता है । यही बादर व सूक्ष्म नाम कर्म की विशेषता है।
-जं. ग. 27-6-66/IX/ शा. ला. किस ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम को 'लब्धि' कहा गया है ?
शंका-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय २ सूत्र १८ वाँ इसप्रकार है-लब्ध्युपयोगी भावेन्दियम् । इसकी सर्वार्थ सिद्धि में लिखा है कि 'ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशेषः लब्धिः।' यहाँ यह शंका होती है कि दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम को लब्धि क्यों नहीं कहा? अर्यात् 'ज्ञानदर्शनावरणकर्मक्षयोपशमविशेषः लब्धिः', ऐसा क्यों नहीं कहा? पांच ज्ञानावरण में से यहाँ किन-किन ज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशम को लब्धि कहा है, यह भी स्पष्ट करें।
समाधान-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय २, सूत्र १८ में दर्शनोपयोग या ज्ञानोपयोग की अपेक्षा कथन नहीं है। इसमें तो द्रव्येन्द्रिय व भावेन्द्रिय ; इन दो प्रकार की इन्द्रियों में से भावेन्द्रिय का कथन है। इस सूत्र का अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान व केवलज्ञान से भी कोई सम्बन्ध नहीं है । क्योंकि उनमें 'तदिन्दियानिन्दियनिमित्तम्' सूत्र लागू नहीं होता है। यह ( अ० १ सूत्र १४ ) सूत्र मात्र मतिज्ञान से सम्बन्धित है। द्वितीय अध्याय के चौदहवें सूत्र में बताया गया है जो द्वीन्द्रिय आदि जाति वाले जीव हैं वे त्रस हैं। इस सूत्र में आये हए 'इन्द्रिय' शब्द का विशेष विवरण सत्र १५, १६, १७ तथा १८ में है । प्रथम अध्याय के चौदहवें सूत्र 'तदिन्दियानिन्दियनिमित्तम्' का सम्बन्ध दर्शन से भी नहीं है। अत: अठारहवें सूत्र का सम्बन्ध भी दर्शनोपयोग, अवधिज्ञानोपयोग, अवधि लब्धि, मनःपर्यय लब्धि व मनःपर्ययज्ञानोपयोग से नहीं है। दर्शन इन्द्रियनिमित्तक नहीं है। उपयोग जब बाह्य पदार्थ को ग्रहण नहीं करता है तब वह अन्तरङ्ग में रहता है । इस स्थिति में दर्शनोपयोग होता है। उस दर्शन ( दर्शनोपयोग ) के पश्चात् यदि चक्षुइन्द्रिय से मतिज्ञान हुआ हो तो उस दर्शन को 'चक्षुदर्शन' संज्ञा दी जाती है । यदि दर्शन के पश्चात् चक्ष के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से मतिज्ञान हआ हो तो उस दर्शन को 'अचक्षदर्शन' संज्ञा दी जाती है। यदि दर्शन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org