Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ २२१ निगोद के इन्द्रियाँ शंका-निगोदिया जीव के कितनी इन्द्रियाँ मानी जाती हैं तथा उसे किस प्रकार समझाना चाहिये ?
समाधान-निगोदिया जीव वनस्पति का एक भेद है अतः इसके एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है। यह अन्य एकेन्द्रियों के समान दो प्रकार होता है-बादर और सूक्ष्म । सूक्ष्म निगोदियाजीव सर्वत्र जल, स्थल और आकाश में भरे पड़े हैं। किन्तु बादर निगोदिया जीव अन्य प्रत्येक वनस्पति और त्रसकायिक जीवों के शरीर के प्राश्रय से रहते हैं । मात्र पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आहारकशरीर, देव, नारकी और केबली इनके शरीर के आश्रय से निगोदिया जीव नहीं रहते । प्रत्येक वनस्पतिकायिक के दो भेद किये जाते हैं-सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति और अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति । इनमें जो सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति है उसमें निगोद जीव होने से ही वह सप्रतिष्ठित कही जाती है, जैसे-पालू, मूली और अदरख आदि। ये बहुत काल तक बिना आश्रय के भी सजीव रहते हैं। इसका कारण निगोदजीवों का उन में प्रतिष्ठित होना ही है ।
–ण. सं. 6-12-56/VI/ ल. च., धरमपुरी धार
अपर्याप्त एकेन्द्रिय में मोह के उत्कृष्ट स्थितिसत्व का प्रभाव शंका-सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त के मोहनीय का उत्कृष्ट स्थिति सत्व क्यों नहीं होता?
समाधान-जिस मनुष्य या तिथंच ने मोहनीय का उत्कृष्ट स्थिति बंध सित्तर कोडाकोड़ी प्रमाण किया है, वह यदि मरकर सूक्ष्म ऐकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में उत्पन्न होता है तो उत्कृष्ट स्थिति बंध के अंतमुहर्त पश्चात ही उत्पन्न हो सकता है। इसके पहले नहीं। अतः सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव के मोहनीय का उत्कृष्ट स्थिति सत्व नहीं कहा है।'
-जं. ग. 4-1-68/VII/शा. कु. ब. विभिन्न एकेन्द्रियों की आयु
शंका-जीवसमास में पृथ्वी, अप, तेज, वायु, इतर निगोद, नित्य निगोद इन छह के सूक्ष्म और बादर के भेद से १२ तथा सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति को मिलाकर १४ भेद हो जाते हैं। इन चौदह के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से जीवसमास में स्थावर के २८ भेद हो जाते हैं। इन २८ स्थावरों की जघन्य और उत्कृष्ट आयु क्या है ?
समाधान-स्थावर के इन २८ भेदों में से १४ जीव लब्ध्यपर्याप्तक हैं, उनकी एक भव सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रायू उच्छवास के अठारहवें भाग प्रमाण है। छह प्रकार के सूक्ष्म पर्याप्तक जीवों की जघन्य व उत्कृष्ट आयु अन्तमुहर्त है। शेष पार प्रकार के बादर पर्याप्त स्थावर जीवों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। उत्कष्ट प्राय
१. स्मरण रहे कि यहां अपर्याप्तक की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम कहा है। पर्याप्त की अपेक्षा तो एक समय कम ७0 कोडाकोडी सागर प्रमाण सत्त्व बन जाता है। यथा--जो देव मोहनीय की ७० कोडाकोडी मागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करके और दूसरे समय में मरकर एकेन्द्रिय में उत्पन्न होते हैं उन एकेन्द्रियों में मोहनीय की स्थिति का उत्कृष्ट अद्धाच्छेद (काल) एक समय कम ७० कोड़ाकोड़ी सागर पाया जाता है। जयधवल 3/1१1
-सम्पादक
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