Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : तीर्थकर प्रकृति को सत्ता रहने पर भी नारकी के बहुभा असाता का उदय
शंका-जिस जीन ने तीर्थकरप्रकृति का बंध कर लिया है, क्या उस जीव के नरक में मात्र साता का उदय रहता है ?
समाधान-प्रथम नरक से तीसरे नरक तक ऐसे असंख्यात जीव हैं जिनके निरन्तर तीथंकरप्रकृति का बंध होता है। इनके भी बहुधा असातावेदनीयकर्म का ही उदय रहता है। नरक में असातावेदनीय के अनुकूल है द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव होने से साता का उदय नहीं होता। कहा भी है-कर्मों का उदीरणा, बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भब और भावादि निमित्तों के नहीं होती। स०सि० अध्याय ९ सूत्र ३६ की टीका, क. पा० सुत्त पृ. ४६५ व ४९८ ।
–ण. ग. 5-12-63/IX ब्र. प. ला. पंचेन्द्रिय सम्मूच्र्छन तो नपुंसक ही होते हैं शंका-पंचेन्द्रिय तियंचों में नपुंसक जीव कौन-कौन से होते हैं ? समाधान-यावत् सम्मूर्च्छनपंचेन्द्रियतिथंच नपुंसक ही होते हैं । 'नारक-संमूच्छिनो नपुंसकानि ॥२॥५०॥' तत्त्वार्थ सूत्र । अर्थ-नारकी और सम्मूछन जीव नपुंसक ही होते हैं ।
तन्दुल-मच्छ यद्यपि संज्ञीपचेन्द्रियपर्याप्ततिर्यच हैं तथापि सम्मूर्छन होने के कारण नपुसक हैं। "शेषास्त्रिवेदाः ॥२॥५२॥" तत्त्वार्थ सूत्र । इस सूत्र द्वारा यह भी कहा गया है कि गर्भज पंचेन्द्रिम तिबंच भी नपुसकवेदी होते हैं।
-जे. ग. 25-11-71/VIII/ र. ला. जैन, मेरठ यदि तियंच प्रायु शुभ है तो तियंचगति अशुभ क्यों ? शंका-गो० क० गा० सं० ४१ में तिथंच आयु को प्रशस्तप्रकृति कहा है और गाथा ४३ में तिर्यचगति को अप्रशस्तप्रकृति कहा है। इसका क्या कारण है ?
समाधान-तियंचगति में कोई जाना नहीं चाहता है, इसलिये तियंचगति को अप्रशस्तप्रकृति कहा है। किन्तु तियंचगति में पहुंचकर कोई मरना नहीं चाहता, अतः तिर्यंचायु को प्रशस्तप्रकृति कहा है। नरकगति में न तो कोई जाना चाहता है और न ही कोई वहाँ रहना चाहता है, अतः नरकायु तथा नरकगति दोनों को अप्रशस्तप्रकृति कहा गया है।
-जं. ग. 2-1-75/VIII के. ला. जी. रा. शाह
१. नोट--यही शंका श्री जवाहरलाल जैन, श्रीण्डर (राज.) ने की थी। जिसके समाधान में आपने इतना विशेष
कहा था-राजा शुभ को जब यह ज्ञात हुआ कि वह मरकर विष्ठा का कीड़ा होगा, तो उसने अपने पत्र को कहा कि तुम उस [कीड़े का] मार देना, क्योंकि वह तिथंचगति में जाना नहीं चाहता था, कित् राजा के वहाँ उत्पन्न होने पर जब राजा का पुत्र राजा की कीड़ेरुप पर्याय को मारने गया तो उस कीड़े ने अपनी रक्षा के लिए विष्ठा में प्रवेश कर लिया, कारण कि अब वह मरना नहीं चाहता था [आयक्षम नहीं चाहता था] | इससे विदित होता है कि तिवंच आयु प्रशस्त प्रकृति है। -सम्पादक
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