Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ २०६
होते ही नारकियों को इसमें प्रवेश करने की उत्कंठा उत्पन्न होती है । अब हमारे सब दुःख नष्ट होंगे और हम सुख से जीयेंगे, ऐसा समझकर वे नारकी उसमें प्रवेश करते हैं । उस नदी में प्रवेश करते ही वे नारकी अपनी अजलियों से तांबे के द्रव के समान लाल रंग का पानी पीना शुरू करते हैं, परन्तु जैसे कठोर भाषण हृदय को संतप्त करता है, वैसे ही वह जल मन को अतिशय दुःख उत्पन्न करता है, अतिशय कठोर वायु से उछले हुए जलतरंग रूप तरवारियों से नारकियों के मस्तक, हाथ, पैर टूट जाते हैं । अतिशय क्षार और उष्णजल कालकूटविष के समान जब व्ररणों में प्रवेश करता है तब उनको अत्यन्त दाह-दुःख होने लगता है । मूलाराधना गाथा १५६८ की टीका ।
—जै. सं. 12-3-59/V / सुच. जैन, आगरा
नारकी श्रपना श्रागामी भव नहीं जानता
शंका- नारकी अपने अवधिज्ञान द्वारा क्या यह जान सकता है कि वह अगले भव में कहाँ पर उत्पन्न
होगा ?
समाधान--- नारकियों में अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र योजन प्रमाण है और काल एक समय कम मुहूर्तप्रमाण है । कहा भी है
"गाउअ जहष्ण ओही णिरएसु अ जोयणुक्कस्स ।" धवल पु० १३ पृ० ३२५ ।
नारकियों में अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र गव्यूति ( एक कोस ) प्रमाण है और उत्कृष्ट क्षेत्र योजन ( ४ कोस ) प्रमाण है ।
"पढमाए पुढबीए रइयाणमुक्कस्सोहिक्वेतं चत्तारिगाउअपमागं । तत्थुक्कस्सकालो मुहुत्तं समऊणं ।" धवल पु० १३ पृ० ३२६ ।
पहली पृथ्वी में नारकियों के अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र चार गव्यूतिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल एक समय कम मुहूर्त प्रमाण है
नरक से मरणकर जीव मध्य लोक में उत्पन्न होता है और यह क्षेत्र एकयोजन से बहुत अधिक है अर्थात् अवधिज्ञान के क्षेत्र से बाहर है अतः नारकी यह नहीं जान सकता कि वह मरकर कहाँ पर उत्पन्न होगा ।
- जै. ग. 14-8-69 / VII / क. दे.
नरक में श्रात्मानुभव
शंका- क्या नरक में सम्यग्दृष्टि आत्मानुभव करता है ?
समाधान-नरक में असंयतसम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान वाले होते हैं । चतुर्थ गुणस्थान में संयम न होने के कारण मात्र आत्मरुचि प्रतीति श्रद्धा अनुभव होता है । इन्द्रिय विषयों में उसकी हेय बुद्धि होती है । चारित्रमोहनीयकर्म के तीव्रोदय वश संयम धारण नहीं कर सकता । बाह्य द्रव्य क्षेत्र काल भी संयम के अनुकूल नहीं है ।
- जै. ग. 5-12-63 / IX / ब्र.प.ला.
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