Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
एक देव के मरण के बाद उसके स्थान पर दूसरे देव की उत्पत्ति का अन्तर श्रादि शंका- सौधर्म आदि स्वर्ग के देवों के जन्म और मरण का कितना अन्तराल है ? समाधान — त्रिलोकसार में देवों के जन्म और मरण का अन्तराल निम्न प्रकार कहा है
दुसुदुसु ति चउक्केसु य सेसे जणणंतरं तु चवणे य । ससदिण पक्ख मासं दुगच दुछम्मासगं होदि ॥ ५२९ ॥ बरविरहं छम्मासं इंदमहादेविलोयवालाणं । चउ तेत्तीस सुराणं तणुरक्खसमाण परिसाणं ॥ ५३० ॥
अर्थात् जितने काल तक किसी भी देव का जन्म न हो सो जन्मांतर है और जितने काल किसी भी देव का मरण न हो सो मरणांतर है । सौधर्मादि दो स्वर्ग में जन्मांतर और मरणांतर का उत्कृष्ट काल सात दिन, ऊपर दोस्वर्ग में एकपक्ष, उससे ऊपर चारस्वर्ग में एकमास, फिर चारस्वर्ग में दोमास, फिर चारस्वर्ग में चारमास, उससे ऊपर ग्रैवेयक आदि में छह्मास उत्कृष्ट जन्मांतर मरणांतर है ।। ५२ ।। एकदेव का मरण हो जाय और उसके स्थान पर जब तक दूसरा देव उत्पन्न न हो उसको विरहकाल कहते हैं । इंद्र, इन्द्र की महादेवी और लोकपाल इनका उकृष्ट विरहकाल छह मास है । त्रायस्त्रिशत, अंगरक्षक, सामानिक और परिषद इन चार जाति के देवों का उत्कृष्ट विरहकाल छह मास है || ५३०||
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एक जीव सौधर्मादिस्वर्ग से चय कर कम से कम कितने काल के पश्चात् उसी स्वर्ग में उत्पन्न हो सकता है, यह अन्तर निम्न प्रकार है
भवनबासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी व सौधर्म - ईशान स्वर्ग से चयकर संज्ञीपर्याप्त गर्भोपकान्तिक तिर्यच या मनुष्य होकर देवायु बाँध पुनः भवनबासी आदि देवों में उत्पन्न हुए जीव का उक्त देवगति से जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । सनत्कुमार माहेन्द्र का मुहूर्त पृथक्त्व, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तबकापिष्ठ का दिवस पृथक्त्व, शुक्रमहाशुक्र, शतार- सहस्रार का पक्षपृथक्त्व, प्रानत प्रारणत, आरण अच्युत का मासपृथक्त्व, नौग्रैवेयक का वर्ष पृथक्त्व तथा यही अनुदिशादि अपराजितपर्यन्त का जघन्य अन्तर है । धवल पु० ७ पृ० १६०-१९६ ।
- जै. ग. 27-6-66 / 1X / हे. च.
मनःप्रवीचारी देवों के भी देवियाँ चाहिए
शंका - ऊपर के स्वर्गों में जहाँ पर मन में विचार करने मात्र से प्रवीचार होता है, वहाँ पर देवांगनाओं की क्या आवश्यकता है ?
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समाधान - मन में देवांगनाओं का विचार करने मात्र से प्रवीचार होता है । मन में अपनी ही देवांगना का विचार करना चाहिये । अन्य दूसरे देव की देवांगना का मन में विचार करने से तो ब्रह्मचर्य में दोष आता है । अतः १६ वें स्वर्ग तक प्रत्येक देव के देवांगना होती है, किन्तु लौकान्तिक देवों के देवांगना नहीं होती, क्योंकि उनके प्रवीचार नहीं है ।
- जै. ग. 9-1-64 / IX / र. ला. जैन, मेरठ
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