Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १९६ अर्थ-सम्पूर्ण पर्याप्तियों का आरम्भ तो युगपत् होता है किन्तु उनकी पूर्णता क्रम से होती है। यद्यपि पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर का काल कुछ अधिक है, तथापि सबका काल अन्तमुहूर्त है । पर्याप्त नाम कर्म के उदय से जीव अपनी अपनी पर्याप्तियों से पूर्ण होता है, तथापि जब तक उसकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक वह नित्यपर्याप्तक है।
-णे. ग. 15-1-68/VII/........
पर्याप्ति व प्राण में भेद, पर्याप्ति द्रव्य-भावरूप नहीं होती शंका-पर्याप्ति और प्राण में क्या अन्तर है ? जैसे प्राण द्रव्य व भावरूप होता है, क्या पर्याप्ति भी द्रव्य व भाव के भेव से दो रूप है । क्या विग्रहगति में प्राणों की तरह पर्याप्ति भी होती है ?
समाधान --आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनापान, भाषा और मनरूप शक्तियों की पूर्णता के कारण को पर्याप्ति कहते हैं और जिनके द्वारा आत्मा जीवनसंज्ञा को प्राप्त होता है उन्हें प्राण कहते हैं। यही इन दोनों में भेद है । षट्खण्डागम पुस्तक १, पृष्ठ २५६ । पर्याप्ति द्रव्य और भाव के भेद से दो रूप नहीं है। विग्रहगति में भी 'पर्याप्ति' अपर्याप्तरूप से पाई जाती है। पखण्डागम पुस्तक २, पृष्ठ ६६८-६६९।।
-जें. सं. 27-3-58/VI/ कपू. दे.
पर्याप्ति-प्राण शंका-क्या संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्यात के इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण नहीं होने पर भी जैसे क्षयोपशम रूप भाव इंद्रिय मानते हैं बसे क्या मनःपर्याप्ति पूर्ण नहीं होने पर क्षयोपशम रूप भाव मन नहीं होता; अगर होता है तो क्या द्रव्य मन की रचना से ही मनोबल प्राण माना जायेगा, भाव मन का क्षयोपशम होने से मन प्राण क्यों नहीं होता? इसी तरह भाषा पर्याप्ति पूर्ण हुए बिना भाषा प्राण मानने में क्या बाधा है ? जबकि इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण हुए बिना इन्द्रिय प्राण मानते हैं, क्षयोपशम रूप से इन्द्रिय मानने से इन्द्रिय प्राण माना तो फिर क्या द्वीन्द्रिय आदि जीव के भाषा की व्यक्ति नहीं होने पर क्षयोपशम भी नहीं है। अगर क्षयोपशम है तो फिर भाषा प्राण भी उसी हिसाब से मानना चाहिए।
समाधान - इन्द्रियाँ दो प्रकार की होती हैं-भाव इन्द्रिय और द्रव्य इन्द्रिय । भाव इन्द्रिय दो प्रकार की है-(१) लब्धि अर्थात् क्षयोपशम (२) उपयोग अर्थात् स्व और पर को ग्रहण करने वाला परिणाम विशेष ( मो० शा० २।१६-१८) मतिज्ञानावरण का क्षयोपशम तो सर्व संसारी जीवों के सर्व अवस्था में रहता है। यदि क्षयोपशम का अभाव हो जावे तो जीव के लक्षण-ज्ञान के अभाव में जीव का भी प्रभाव हो जाएगा । अतः अपर्याप्त अवस्था में संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के क्षयोपशमरूप पांचों इन्द्रियाँ तो अवश्य पाई जाती हैं। अतः अपर्याप्त अवस्था में पंचेन्द्रिय प्राण कहा है। किन्तु मनोबल के विषय में ऐसी व्यवस्था नहीं है क्योंकि द्रव्य मन से उत्पन्न हए प्रात्मबल को मनोबल कहते हैं। बिना द्रव्य मन के मनोबल नहीं हो सकता। अपर्याप्त अवस्था में द्रव्य मन का अभाव है अतः मनोबल का भी अभाव है । (ष० खं०/१-२५९-२६० ) भाषा पर्याप्ति से उत्पन्न हुई भाषा वर्गणा के स्कन्धों का श्रोत्र इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य पर्याय से परिणमन करने रूप शक्ति को भाषाप्राण कहते हैं। भाषापर्याप्ति कारण है और भाषाप्राण कार्य है। अपर्याप्त अवस्था में भाषा पर्याप्ति नहीं होती अतः भाषा बल भी नहीं होता।
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