Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुस्तार :
संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के अपर्याप्त अवस्था में पाँचों इन्द्रियों का क्षयोपशम रहता है । यह क्षयोपशम इन्द्रिय पर्याप्ति का कारण है किन्तु मन के क्षयोपशम अर्थात् भाव मन को इससे भिन्न व्यवस्था है। मन दो प्रकार का है— द्रव्यमन व भावमन इनमें अंगोपांग नाम कर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाला द्रव्य मन है नो-इन्द्रियावरण का क्षयोपशम भाव मन है । भाव मन अपर्याप्त अवस्था में नहीं होता है क्योंकि द्रव्य मन के बिना बाह्य पदार्थों की स्मरणरूप शक्ति ( भाव मन ) का सद्भाव नहीं होता । यदि बिना द्रव्यमन के ऐसी शक्ति का सद्भाव स्वीकार कर लिया जावे तो द्रव्य मन की कोई प्रावश्यकता नहीं रहती ( ० ०१ / २५४ - २५९ २ / ४१२ ) । भाषा रूप से परिणमन करने की शक्ति के निमित्तभूत नो कर्म ( ओष्ठ, तालु आदि ) पुद्गलप्रचय की प्राप्ति को भाषा पर्याप्त कहते हैं ( ष० खं० १/२५५ ) । भाषा वर्गणा के स्कन्धों का श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य पर्याय से परिणमन करने रूप शक्ति को वचनबल कहते हैं । ( ष० खं० २ / ४१२ ) । मनोवर्गणा के स्कन्धों से उत्पन्न हुए पुद्गलप्रचय को मनः पर्याप्ति और उससे उत्पन्न हुए मनोबल को मनोबल प्राण कहते हैं । ( ० ० २ / ४१२ ) । भाषापर्याप्ति और मनः पर्याप्ति कारण है और भाषाबल व मनोबल प्राण कार्य हैं। द्वीन्द्रियादि जीवों में भाषा का क्षयोपशम अपर्याप्त अवस्था में नहीं होता है।
अपर्याप्त जीवों के कालों में से उत्कृष्ट क्षुद्रभव ग्रहण का काल-प्रमाण शंका- Second [काल उत्कृष्ट क्षुद्रभव का है या जघन्य का ?
समाधान - 24 Second प्रमाण काल उत्कृष्ट क्षुद्रभव का है, जघन्य क्षुद्रभव का नहीं।
-पनाचार 9-1-55 / ब. प्र. स. पटना
- पत्र 25-6-79 / 1 /ज. ला. जैन, भीण्डर अधिक होती है।
कम बार जन्म मरण कर सकता है क्या ?
पर्याप्त जीव की जघन्य प्रायु श्वास से शंका- कोई भी पर्याप्त जीव एक श्वास में १८ बार या कुछ
समाधान — "उत्पन्न होने के प्रथम समय से लेकर वादर निगोद अपर्याप्तकों के उत्कृष्ट आयुप्रमाण तथा अन्य एक अन्तर्मुहूर्तं प्रमाण ऊपर जाकर औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर और आहारक शरीर के निर्वृत्तिस्थान श्रावलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं।" धवल पु० १४ पृ० ५१६ ।
इस आर्ष प्रमाण से सिद्ध होता है कि पर्याप्तक जीव की जघन्य आयु भी एक श्वास से अधिक होती है । जै. ग. 20-6-68 / VI........
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पर्याप्तियों से अपर्याप्त जीव के भी उपयोगरूप ज्ञान सम्भव है
शंका- क्या अपर्याप्त अवस्था में भी उपयोगरूप ज्ञान व दर्शन हो सकते हैं ?
समाधान - अपर्याप्त अवस्था में उपयोगरूप भी ज्ञान दर्शन हो सकते हैं। जैसे स्मृतिज्ञान, धारणाज्ञान आदि सम्भव है। (जयधवल १, पृ० ५१ अंतिम पंक्ति ) "इंद्रियों से ही ज्ञान उत्पन्न होता है ऐसा मानने पर अपर्याप्त काल में इंद्रियों का अभाव होने से ज्ञान के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है।"
--पत्र 6-4-80 / 1 /ज. ला. जैन, भीण्डर
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