Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
उदये व अपुष्णस्स य, सगसगपज्जत्तियं णणिट्ठवदि । अंत्तोमुहुत्तमरणं, लद्धिअपज्जत्तगो सो दु ॥ १२२ ॥ गो० जी०
अर्थ- जो छह प्रकार की पर्याप्तियों के प्रभाव का हेतु वह अपर्याप्ति नाम कर्म है । (स० सि० ) अपर्याप्त नाम कर्म का उदय होने से जो जीव अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न करके अन्तर्मुहूर्त काल में ही मरण को प्राप्त हो जाय उसको लब्ध्यपर्याप्तक कहते हैं । गो० जी० ।
बादरहुमे इंदिय, वितिचरिदिय असणसण्णी य । पज्जत्तापज्जत्ता, एवं ते चोदवसा होंति ॥७२॥ गो० जी०
अर्थ- - बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव तथा संज्ञी और प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव, प्रर्थात् इन सातों ही प्रकार के जीवों के पर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त ऐसे दो भेद होने से जीव समास चौदह प्रकार का होता है ।
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इससे यह स्पष्ट हो जाता है एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन सब जीवों में लब्ध्यपर्याप्तक जीव होते हैं अर्थात् लब्ध्यपर्याप्त जीव एकेन्द्रिय आदि के भेद से पांच प्रकार के होते हैं ।
अब साधारण का स्वरूप कहते हैं
"बहुनामात्मनामुपभोग हेतुत्वेन साधारणं शरीरं यतो भवति तत्साधारणशरीरनाम ।" स. सि. ८1११
सहारणोबयेण णिगोवसरीरा हवंति सामण्णा ।
ते पुण दुविहा जीवा, बादरा सुहुमाति विशेया ॥१९१॥ साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं भणियं ॥१९२॥ जत्थेक्कमरइ जीवो, तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं ।
areas जत्थ एक्को, वक्कमणं तत्थ णंताणं ॥ १९३॥ गो. जी.
अर्थ - बहुत आत्माओं के उपभोग का हेतु रूप से साधारण शरीर जिसके निमित्त से होता है वह साधारण शरीर नाम कर्म है । स० सि० ।
जिन जीवों का शरीर साधारण नाम कर्म के उदय से निगोद रूप होता है उनको साधारण या सामान्य कहते हैं । इनके दो भेद हैं- बादर और सूक्ष्म ।। १६१ ।।
इन साधारण जीवों का साधारण अर्थात् समान ही तो आहार होता है, साधारण अर्थात् एक साथ ही श्वासोच्छ्वास ग्रहण होता है। इस प्रकार साधारण जीवों का लक्षण परमागम में साधारण ही बताया है ।। १६२ ।।
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साधारण जीवों में जहाँ पर एक जीव मरण करता है वहाँ पर एक साथ अनन्त जीवों का मरण होता है और जहाँ पर एक जीव उत्पन्न होता है वहीं अनन्त जीवों का उत्पाद होता है ।।१९३॥
इस प्रकार साधारण जीव एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिक निगोद रूप होते हैं ।
लक्षण भेद से तथा स्वामी आदि भेद से अपर्याप्त और साधारण जीवों में अन्तर है ।
- जै. ग. 29-11-65 / IX / रा. डा. कैराना
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