Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : - समाधान-सम्मूर्च्छन जीवों का कोई नियत आकार नहीं होता है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव सम्मूर्च्छन होते हैं। सम्मूच्र्छन जीव सर्वलोक में पाये जाते हैं ।
-जे. ग. 5-3-70/IX/ जि. प्र. मोर, मुर्ग प्रादि जीव नभचर हैं शंका- मोर, मुर्ग आदि जीव नभचर हैं या थलचर ?
समाधान-स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा लोक भावना गा० १२९ में पंचेन्द्रिय तियंचों के जल-थल-आयासगामिणः ऐसे तीन भेद कहे हैं। श्री शुभचन्द्राचार्य कृत टीका में आकाशगामिन् अर्थात् नभचर के विषय में लिखा है
"आकाशगामिनः शुककाकबक चटक सारसहंस मयूरादयः" पंचेन्द्रिय नभचर जीव जैसे तोता, कौआ, बगुला, चिड़िया, सारस, हंस, मयूर आदि । इस आर्ष प्रमाण से सिद्ध है कि मोर, मुर्ग आदि जीव नभचर हैं ।
–णे. ग. 23-3-78/VII/ र. ला. जैन मेरठ पर्याप्ति
पर्याप्ति, अपर्याप्ति का स्वरूप, प्रारम्भ काल आदि शंका-छह पर्याप्ति मनुष्य तियंच में भी अन्तर्मुहूर्त जन्म लेने के बाद होते हैं क्या ?
समाधान-संसारी जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के होते हैं। जिनके पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं वे पर्याप्त हैं। जिनके पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होतीं वे अपर्याप्त जीव हैं। पर्याप्तियां छह हैं। सब पर्याप्तियां एक साथ प्रारम्भ होती हैं और अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण हो जाती हैं।
पज्जत्तीपटुवणं जुगवं तु कमेण होवि णिवणं ।
अंतोमुहुत कालेणहियकमा तत्तियालावा ॥१२०॥ गो जी. अर्थ-सम्पूर्ण पर्याप्तियों का प्रारम्भ तो युगपत् होता है, किन्तु उनकी पूर्णता क्रम से होती है। इनका काल यद्यपि पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर का कुछ-कुछ अधिक है, तथापि सभी का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है।
"एतासां प्रारम्भोऽक्रमेण जन्मसमयादारभ्य तासां सत्त्वाभ्युपगमात् । निष्पत्तिस्तु पुनः क्रमेण । एतासामनिष्पत्तिरपर्याप्तिः।" धवल पु. १ पृ. २५५-५६ । ..... अर्थ-इन छहों पर्याप्तियों का प्रारम्भ युगपत् होता है, क्योंकि जन्म-समय से लेकर ही इनका अस्तित्व पाया जाता है । परन्तु पूर्णता क्रम से होती है, तथा इन पर्याप्तियों की अपूर्णता को अपर्याप्ति कहते हैं ।
-जै. ग. 27-7-69/VI/सु. प्र. पर्याप्त-अपर्याप्त विचार
__ शंका-षट्खण्डागम पु० १ सूत्र ७८ की टीका में छठे गुणस्थान वाले के औदारिक शरीर सम्बन्धी पर्याप्तक, आहारक शरीर सम्बन्धी अपर्याप्तक लिखा है सो ये दोनों बातें एक साथ हो सकती हैं क्या ?
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