Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान-सयोग केवली के कषाय का अभाव हो जाने से ईर्यापथ आस्रव होता है। जब द्रव्य कर्म का आस्रव होता है तो यह प्रश्न होता है कि उसकी प्रकृति ( स्वभाव ) क्या है ? वह साता प्रकृति रूप है क्योंकि अन्य समस्त कर्मों का संवर हो चुका है। उस आस्रव में कितना काल लगता है अर्थात् कितनी स्थिति है ? उसकी स्थिति एक समय मात्र है, क्योंकि किसी भी कार्य में एक समय से कम काल नहीं लगता, कारण कि समय से अन्य कोई छोटा काल नहीं है। वह साता प्रकृति मंद है या तीव्र है ? जैसे 'गन्ना मीठा प्रकृति वाला है' ऐसा कहने पर तुरन्त प्रश्न होता है कि कम मीठा है या अधिक मीठा है, उसी प्रकार प्रश्न होता है वह द्रव्य कर्म मंद साता प्रकृति वाला है या तीव्र साता प्रकृति वाला है अर्थात् अनुभाग तीव्र है या मंद है ? वह साता प्रकृति मंद अनुभाग वाली तो हो नहीं सकती, क्योंकि साता प्रकृति प्रशस्त होने के कारण उसमें मंद अनुभाग संक्लेष से पड़ता है परन्तु सयोग केवली के संक्लेष का सर्वथा अभाव है अत: वह साता प्रकृति अनन्तगुणी अनुभाग वाली होनी चाहिये क्योंकि वहाँ पर विशुद्धता अधिक है।
सयोग केवली के असाता के उदय समय पूर्व बँधी साता का असाता रूप स्तिबुक संक्रमण हो जाता है तो इस नवीन साता का भी असाता रूप क्यों संक्रमण नहीं होता? इसके उत्तर में टीकाकार ने यह कहा है कि
ति वाले कर्म का ही स्तिबुक संक्रमण होता है। यदि इस नवीन साता का संक्रमण माना जावेगा तो इसके दो समय स्थिति का प्रसंग आजायगा, किन्तु इसकी स्थिति एक समय है अतः इस संक्रमण नहीं होता और इस का साता रूप उदय होने से अति हीन अनुभाग वाली असाता को उदय प्रतिहत हो जाता है।
कषाय के उदय में न तो एक समय की स्थिति वाला और ऐसे अनुभाग वाला भी बंध सम्भव नहीं था अतः यह कहा जाता है कि अकषायी जीवों के स्थिति व अनुभाग बंध नहीं होता । अन्यथा जहाँ पर प्रकृति व प्रदेश है वहां पर स्थिति व अनुभाग अवश्य है। बिना स्थिति व अनुभाग के प्रकृति व प्रदेश बंध सम्भव ही नहीं है। इस प्रकरण की विशेष जानकारी के लिये धवल पुस्तक १३ पृ० ४७ से ५४ तक देखना चाहिये। यह कथन जो गोम्मटसार कर्मकांड गाथा २७४ में कहा गया है वह धवल पुस्तक १३ पृ० ५३ पर है ।
गोम्मटसार टीका में सयोग केवली के साता का बंध एक समय स्थितिवाला कहा गया है, दो समय की स्थिति वाला नहीं कहा गया ।
-जे.ग.9-16-5-63/IX/प्रो. म. ला. जैन
(१) केवली की स्व-परज्ञता (२) उपचार का अर्थ प्रारोप या मिथ्या कल्पना नहीं
शंका-केवली भगवान स्व को ही जानते हैं या पर को ही जानते हैं या दोनों को ही जानते हैं ? मेरी राय में निश्चयनय से केवली भगवान स्व और पर दोनों को जानते हैं।
समाधान-वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। अर्थात् प्रत्येक वस्तु में अनेकों परस्पर विरोधी धर्म रहते हैं। जिस धर्म की मुख्यता से उस वस्तु को देखा जावे वह वस्तु उस धर्म की अपेक्षा से वैसी ही दिखाई देती है अन्य
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