Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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का उदय समाप्त हो जाता है । चौदहवें गुणस्थान में मनुष्य भव है अत: वहाँ पर मनुष्य गति व मनुष्यायु का उदय अवश्य होगा, किन्तु योग व कषाय का अभाव हो जाने के कारण लेश्या का भी अभाव हो जाता है।
-जें. ग. 29-6-72/lX/रो. ला. मि. चतुर्दश गुणस्थान में भी प्रौदयिक भाव शंका - क्या चौदहवें गुणस्थान में भी औदयिक भाव होता है ? यदि होता है तो कौनसा होता है ?
समाधान-चौदहवें गुणस्थान में भी प्रौदयिक भाव होता है, क्योंकि वहाँ पर अघातिया कर्मोदय है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में श्री नेमिचन्द्राचार्य ने कहा है
मिच्छतियेतिचउक्के दोसबि सिद्धवि मूल भावा हु।
तिग पण पणेगं चउरो तिग दोणि य संभवा होति ॥२१॥ इस गाथा में सयोगी और अयोगी इन दोनों में औदयिक, क्षायिक व पारिणामिक ये तीन भाव होते हैं ।
मनुष्यगति शुक्ललेश्या प्रसिद्धत्व ये औदयिक के तीन, क्षायिक के सर्व नव; जीवत्व भव्यत्व पारिणामिक ऐसे सयोगी केवली वि चौदह भाव हैं । बहुरि इन विः शुक्ललेश्या घटाएं, अयोगी ( चौदहवें गुणस्थान ) विर्षे तेरह भाव हैं । गोम्मटसार बड़ी टीका पृ० ९९३ ।
"अयोगे लेश्यां विना द्वौ, तो हि मनुष्यगत्यसिद्धत्वे ।" गो. क. गा. ८२७ टीका।
अर्थ-अयोग केवली चौदहवें गुणस्थान में लेश्या के बिना मनुष्यगति और असिद्धत्व ये दो औदयिक भाव हैं।
-जें. ग. 26-10-72/VII/ रो. ला. मि. दिव्यध्वनि का स्वरूप तथा उसे झेलने वाला कौन ? शंका-केवली भगवान का उपदेश किस रूप में होता है ? वाणी खिरती है तो झेलता कौन है ?
समाधान-केवली भगवान का उपदेश अक्षरानक्षरात्मक, सात सौ कुभाषा ( लघु भाषा ) और अठारह भाषा स्वरूप, नाना भेदों से भिन्न बीज पद रूप व प्रत्येक क्षण में भिन्न २ स्वरूप को प्राप्त होने वाली ऐसी दिव्यअवनि के द्वारा होता है। तीथंकरों की दिव्यध्वनि गणधर झेलते हैं। साधारण केवलियों की दिव्यध्वनि को विशेष ज्ञानी आचार्य झेलते हैं, किन्तु उनके बीज बुद्धि आदि ऋद्धि होना चाहिये अन्यथा वे दिव्यध्वनि को कैसे झेल सकेंगे। (विशेष के लिए धवल पु० ९ पृ० ५८-५९ देखना चाहिए)।
-जें. ग. 27-2-64/IX/ चांदमल दिव्यध्वनि ज्ञान का कार्य है - शंका-केवलज्ञानी की आत्मा का दिव्यध्वनि से क्या सम्बन्ध है ? दिव्यध्वनि भाषा वर्गणा तीर्थकर प्रकृति कर्म वर्गणा में केवली का निमित्त मात्र है, ऐसा कहा जाता है, क्या यह ठीक है ?
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